डायरी में अनायास ही लिख दिया

यूं ही सोचा
घर चलूं
फिर सोचा किधर चलूं
मेरा घर तो छूट गया है
राह ने मुझे छत दिया है
सागर ने दे दी गहराई
जमीन से बिस्‍तर ले लिया है
आवारा हूं, बंजारा हूं पर वक्‍त का मारा नहीं
थका जरूर हूं मगर मैं अभी हारा नहीं
कोई तो मंजिल मुझे चूम लेगी
यही बस ख्‍वाहिश है
ए खुदा बस इतनी सी फरमाइश है
सोचा था घर चलूं
फिर याद आया किधर चलूं..................

Comments

Udan Tashtari said…
बढ़िया रचना,,