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इन दिनों देश में नागरिकता संशोधन विधेयक (CAB) 2019 को लेकर सोशल मीडिया पर युद्ध जैसा माहौल बना हुआ है. पश्चिम बंगाम और असम तो धधक उठा है. मगर इस बारे में पूरी जानकारी शायद ही किसी को हो. राजनीति की शिकार जनता ने बस अपनी आवाज़ बुलंद कर रखी है. ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आखिर CAB (कैब) में है क्या?
बता दें कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की देखरेख में संसद के दोनों सदनों यानी लोकसभा और राज्यसभा में CAB-2019 को पारित कर दिया गया है. इसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में अपने धर्म को लेकर परेशान हिंदू, बौध, पारसी, जैन और क्रिश्चियन समुदाय के लोगों को भारत में शरण यानी नागरिकता देने की बात कही गई है. इस सूची में मुस्लिम वर्ग को जगह नहीं दी गई है. इस कारण ही विवाद गहराया हुआ है. हालांकि, उक्त तीनों की पड़ोसी देशों में मुस्लिम समुदाय बहुल है जबकि उपरोक्त दर्ज समुदाय के लोग अल्पसंख्यक हैं.
भारत में नागरिकता विधेयक का आधार क्या है?
भारतीय संविधान में नागरिकता विधेयक 1955 में नागरिकता का बखान किया गया है. इसमें भारतीय नागरिकता हासिल करने के लिए पांच तरह के रास्ते बताए गए हैं. इसके तहत भारत में जन्म के द्वारा, वंश द्वारा, पंजीकरण के माध्यम से, प्राकृतिककरण (भारत में विस्तारित निवास) से और भारत में क्षेत्र का समावेश करके भारत का नागरिक बनने की बात कही गई है.
वहीं, नागरिकता विधेयक में असंवैधानिक तरीके से भारत में रह रहे प्रवासियों को भारतीय नागरिकता न मिलने की भी बात की गई है. इस अधिनियम के तहत यह बताया गया है कि एक असंवैधानिक प्रवासी वह विदेशी है जो कि देश में बिना किसी भ्रमण प्रपत्र (Travel Documents) यानी वीजा और पासपोर्ट के आया हो या वह देश में प्रवेश के समय उचित प्रपत्रों के साथ कुछ समय के लिए आया हो. यहां यह जानना जरूरी है कि असंवैधानिक प्रवासी को विदेशी अधिनियम 1946 व पासपोर्ट (भारत में प्रवेश के लिए) अधिनियम 1920 के तहत जेल में डालने या वापिस उसके देश भेजने की बात कही गई है.
वर्ष 2015 और 2016 में भारत सरकार ने असंवैधानिक प्रवासियों के कुछ खास समूहों को अधिनियम 1946 और 1920 के तहत राहत दी है. इनमें अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के रहने वाले उन हिंदुओं, सिख, बौध, जैन, पारसी और क्रिश्चियन समुदाय के लोगों को शामिल किया गया है जो 31 दिसंबर, 2014 तक भारत में प्रवेश कर चुके हैं.
इसका अर्थ यह हुआ कि इस आधार पर उपरोक्त वर्णित श्रेणी में शामिल असंवैधानिक प्रवासियों को बिना उचित प्रपत्रों के आधार पर न ही जेल भेजना चाहिए और न ही उनके देश में उन्हें वापिस भेजा जाएगा. नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 को संसद में नागरिकता विधेयक 1955 में संशोधन के लिए पटल पर रखा गया था ताकि ऐसे लोग भारत की नागरिकता पाने के लिए योग्य हो सकें. हालांकि, 16वीं लोकसभा के विघटन के साथ ही यह बिल समाप्त हो गया. इसके बाद नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2019 के तहत दिसंबर 2019 में इसे लोकसभा में दोबारा पेश किया गया.
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धर्म के आधार पर नागरिकता : यह संशोधन बिल नागरिकता अधिनियम 1955 में पहली बार यह संशोधित करता है कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के रहने वाले गैरमुस्लिम धर्म के लोगों को जो 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत प्रवेश कर चुके हैं, धर्म के आधार पर नागरिकता प्रदान करेगा. गैरमुस्लिम समुदायों में हिंदू, सिख, बौध, जैन, पारसी और क्रिश्चियन धर्म के लोगों को शामिल किया गया है.
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अपवाद
असंवैधानिक नागरिकों को नागरिकता न मिलने की दो श्रेणियां भी रखी गई हैं. इसके तहत 'इनर लाइन' के तहत संरक्षित राज्यों और संविधान की छठी अनुसूची के तहत वाले क्षेत्रों में यह विधेयक लागू नहीं होगा.
इनर लाइन परमिट (ILP)
यह विशेष परमिट है जो भारत के अन्य हिस्सों में रहने वाले लोगों को भारत के उन राज्यों में रहने वाले जो ILP के अधीन हैं, में प्रवेश करने की अनुमति देता है. राज्य सरकार की अनुमति के बिना ILP संरक्षित राज्यों में कोई भी नागरिक प्रवेश नहीं कर सकता है.
छठी अनुसूची
संविधान की छठी अनुसूची पूर्वोत्तर के राज्यों (असम, मिजोरम, मेघालय और त्रिपुरा) से संबंधित है. इसके तहत इन राज्यों की स्वायत्त जिला परिषदों को नागरिकता के संदर्भ में विशेष अधिकार प्राप्त है. इन राज्यों को यह विशेषाधिकार है कि वे नागरिकता अधिनियम 1955 के तहत नागरिकता प्राकृतिककरण के आधार पर किसी को भी नागरिकता दे सकते हैं. नागरिकता प्राकृतिककरण के अंतर्गत यह बताया गया है कि आवेदक पिछले 12 महीनों के दौरान भारत में निवास किया हो. साथ ही, पिछले 14 बरसों में से 11 साल तक भी भारत में रह चुका हो.
यह संशोधन दूसरी श्रेणी में 11 वर्ष से 5 वर्ष तक के लिए विशेष परिस्थितियों में उपरोक्त वर्णित छह धर्मों व उपरोक्त वर्णित तीन देशों के आवेदकों को विशेष छूट देता है.
वहीं, केंद्र सरकार को ओवरसीज सिटिजन ऑफ इंडिया (OCI) के पंजीकरण को कानून के उल्लंघन को देखते हुए रद करने की शक्ति प्रदान करता है. हालांकि, विधेयक उन कानूनों की प्रकृति पर कोई मार्गदर्शन प्रदान नहीं करता है जिन्हें केंद्र सरकार अधिसूचित कर सकती है. वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया है कि प्राधिकरण के अधिकारों पर सीमा निर्धारित करने और किसी से बचने के लिए यह मार्गदर्शन आवश्यक है ताकि कानून का बेजां इस्तेमाल न हो सके.
विधेयक के विरोध में रखे गए तर्क
- विधेयक की मौलिक आलोचना यह है कि यह विशेष रूप से मुसलमानों को लक्षित करता है. आलोचकों का तर्क है कि यह अनुच्छेद 14 (जो समानता के अधिकार की गारंटी देता है) का उल्लंघन करता है. साथ ही, यह धर्मनिरपेक्षता की कसौटियों पर भी खरा नहीं उतरता है.
- भारत में श्रीलंका के तमिल और म्यांमार के हिंदू रोहिंग्या बहुत बड़ी संख्या में बतौर रिफूजी रह रहे हैं. इस अधिनियम में वे सम्मिलित नहीं हो रहे हैं.
- पूर्वोत्तर राज्यों के कुछ क्षेत्रों में छूट के बावजूद भारी संख्या में बांग्लादेश में रह रहे अवैध प्रवासियों की नागरिकता एक बड़ा सवाल बन चुका है.
- अवैध प्रवासियों और सताए गए लोगों के बीच अंतर करना सरकार के लिए मुश्किल भरा सबब होगा.
विधेयक के पक्ष में रखे गए तर्क
- सरकार ने स्पष्ट किया है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश इस्लामिक गणराज्य हैं. जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं. उन्हें इसलिए प्रताड़ित अल्पसंख्यक नहीं माना जा सकता. इसके अलावा केंद्र सरकार ने आश्वासन दिया है कि वह हर मामले में इसकी जांच करेगी कि आवेदक की दशा क्या है.
- यह विधेयक उन सभी लोगों के लिए एक बड़े वरदान के रूप में साबित होगा जो विभाजन और उसके बाद इन तीन देशों में घटित कई परिस्थितयों के शिकार बने हैं.
- वर्ष 1947 में धार्मिक तर्ज पर भारत और पाकिस्तान के बीच हुए विभाजन का हवाला देते हुए सरकार ने तर्क दिया है कि लाखों नागरिक जो विभिन्न धर्मों से संबंधित हैं और पाकिस्तान और बांग्लादेश में बिना किसी नागरिकता के रह रहे हैं, उन्हें इससे राहत मिलेगी.
- केंद्र सरकार ने अपने तर्क में कहा है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश का गठन एक विशिष्ट राज्य धर्म के तहत किया गया है. इस कारण ऐसे बहुत से लोग हैं जो हिंदू, सिख, बौध, जैन, पारसी और क्रिश्चियन समुदाय के हैं, उन्हें प्रताड़ना का शिकार होना पड़ रहा है. ऐसे लोग बड़ी संख्या में भारत में यात्रा दस्तावेज बनवाकर प्रवेश तो पा चुके हैं लेकिन वे अपने देश नहीं लौटना चाहते.
- आजादी के बाद, एक बार नहीं बल्कि दो बार, भारत ने माना कि उसके पड़ोस में अल्पसंख्यक इसकी जिम्मेदारी हैं. पहली बार विभाजन के तुरंत बाद और दूसरी बार वर्ष 1972 में इंदिरा-मुजीब संधि के दौरान जब भारत ने 1.2 करोड़ रिफूजियों को अपनाने की बात कही थी तब-तब पड़ोसी देश में रह रहे अल्पसंख्यकों का जिम्मा भारत ने अपनाने की बात कही थी.
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