भारतीयता के राष्‍ट्रवादी दर्शन से संस्‍कृति का संरक्षण


नीरज तिवारी

भारत पर विदेश‍ियों ने राज किया। आक्रमण किया। मठ-मंदिर तोड़े। धर्मांतरण का कुचक्र चलाया। फिर भी सनातन धर्म में अब तक बिखराव क्‍यों नहीं हुआ? हिन्‍दुत्‍व की अनवरत होती आई विजयगाथा क्‍या है? इन प्रश्‍नों के उत्‍तर को समझना बहुत आसान है। भारत देश में करोड़ों की जनसंख्‍या में अनगिनत परम्‍पराओं के लोग एक साथ रह रहे हैं। रहते आये हैं और रहेंगे भी। सबकी अपनी-अपनी भौगोलिक चुनौतियॉं हैं। बोली अलग। भेष अलग। चाल अलग। ढाल अलग। फिर भी कश्‍मीर से लेकर कन्‍याकुमारी तक सभी एक सूत्र में बँधे हुये हैं। इस सूत्र का नाम है ऋषि परम्‍परा....संत परम्‍परा...हिंदुत्‍व से ओतप्रोत राष्‍ट्र दर्शन। ऋषि परम्‍पराओं ने हमारी हस्‍ती को कभी मिटने नहीं दिया। सुनने में यह थोड़ा अजीब जरूर लग रहा होगा लेकिन इसका अर्थ समझने के लिये भारत और इस पर हमला करने वाले विदेशी आक्रमणकारियों के इतिहास को समझना होगा।

कलियुगाब्‍द की 38वीं शताब्‍दी में यानी आज से करीब 1390 वर्ष पूर्व अरब स्‍थान में पूरे विश्‍व को दुख देने वाले इस्‍लामी सम्‍प्रदाय की शुरुआत हुई। केवल बीस वर्ष के अंदर अरबी आक्रांताओं ने इजिप्‍ट, ग्रीक, इराक, तुर्कीस्‍तान, सीरिया और इरान की संस्‍कृति पर हावी होने के साथ ही उन्‍होंने तलवार के दम पर स्‍थानीय लोगों को मुसलमान बना दिया। फिर भी उनकी लालसा खत्‍म नहीं हुई। उनकी नापाक नज़र अब प्राचीन राष्‍ट्र भारत पर थी। वे यहॉं की सभ्‍यता और संस्‍कृति को समाप्‍त कर देना चाहते थे। इसीलिये उन्‍होंने अब भारत की ओर कूच कर दिया। मगर यहां उन्‍हें 220 वर्षों तक गांधार के वीरों से युद्ध करना पड़ा। वर्तमान में उस क्षेत्र को हम सभी अफगानिस्‍तान के नाम से जाते हैं। इस पठारी क्षेत्र में अरब हावी नहीं हो पा रहे थे।

हालांकि, घुसपैठियों की मदद करने के लिये हमेशा से ही हम सबके बीच का ही कोई गद्दारी कर जाता है। वहां भी उस समय वही हुआ। राष्‍ट्रवाद पर न जीने वाले कुछ ईरानी, दुरानी, अफगानी जातियों ने मुस्लिम धर्म अपना लिया। धनके लालच में वे ऐसा करते रहे। अब उन लोभियों ने अरब के आक्रांताओं का साथ देना शुरू कर दिया। अब अफगान की विकट भौगोलिक परिस्थिति उन्‍हें रास आने लगी। कारण घुसपैठियों की मदद करने वाले धर्मांतर‍ित गद्दार। अरब हमालवरों को सफलता मिली। वे भारत में आगे बढ़ आये। अब सिंध, पंजाब और राजस्‍थान की विशाल भूमि अक्रमण होने लगा। लगभग तीन सौ वर्षों तक भयंकर युद्ध होते रहे। धर्मांतरण का दबाव बनाया गया। बड़ी संख्‍या में लोगों को पथभ्रष्‍ट करने का कुचक्र चलाया जाता रहा।

इस सम्‍बंध में हिंदुत्‍व दर्शन और भारत को स्‍वतंत्र कराने के लिये जन-जन में क्रांति का दीप प्रज्‍वलित करने वाले स्‍वातंत्र्यवीर दामोदर सावरकार भी कहते थे कि आठवीं शताब्दी से जो मुसलमानों के आक्रमण शुरू हुए वह सत्रहवीं व अठारहवीं शताब्दी तक अनवरत होते रहे। उस समय हमारे अधिकांश राजा हार गये थे। हिन्दू सत्‍ताऍं भी घटती जा रही थीं लेकिन कुछ ऐसी बात अवश्‍य थी जो हमारे अन्‍दर जिन्‍दा थी, जो हमारे मौलिक 'राष्‍ट्रतत्‍व' को जीवित रखती थी। हर विपत्तिकाल में इस 'राष्‍ट्रदर्शन' को जीवित रखा जाता था। भारतवर्ष के उन महाविकट काल में हम एक आध्‍यात्मिक, दार्शनिक तथा सांस्‍कृतिक जागरण का कालखण्‍ड देखते हैं। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, स्‍वामी विद्यारण्‍य, समी रामानन्‍द, चैतन्‍य महाप्रभु, गुरु नानक देव, सन्‍त कबीर, सन्‍त रविदास, बसवेश्‍वर, सन्‍त नमदेव, समर्थ गुरु रामदास, गोस्‍वामी तुलसीदास, श्रीमंत शंकरदेव आदि ने अपने-अपने कालखण्‍डों में हिन्‍दू दर्शन एवं भारतीयता से ओतप्रोत विचारों से जनसामान्‍य को एकजुट रखा।

सुनने में यह थोड़ा अरज भरा है लेकिन जब अक्रांताओं से लड़-लड़कर हिन्‍दुत्‍व कमजोर होने लगा तो इन महापुरुषों के विचार और प्रयास ने सबको ऊर्जावान कर दिया। देश के हर प्रांत और भाषा में यहॉं तक की स्‍थानीय बोलियों में भी आध्‍यात्‍म को आधार बनाकर वैदिक दर्शन, गीता, महाभारत, रामायण, रामचरितमानस और भागवत् कथाओं के माध्‍यम से टूटे हुये मन और जीवन को संबल दिया गया। इन संतों के साहित्‍य दर्शन और आध्‍यात्‍मिक प्रवाह ने आक्रांताओं के सामने कभी हार नहीं मानी।

इस सम्‍बंध में प्रकाश डालते हुये राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक डॉ. मोहन जी भागवत भी अपने भाषणों में कहते हैं, 'जब इस्लाम का आक्रमण हुआ, यह एक नए प्रकार का आक्रमण था। शक, हूण, कुषाण, यहूदी एक अन्य प्रकार का आक्रमण था जिसमें वे सम्पत्ति की लूट करने आए और आक्रमण करते-करते यहीं बस गए और यहीं के हो गए। अब वे पहचान में भी नहीं आते। वह भी अब हिन्दू ही हैं।' इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीयता के राष्‍ट्रदर्शन ने विदेशियों को भी स्‍वयं में समाहित कर लिया है। इसके अतिरिक्‍त इस्लाम का आक्रमण हमारी मान्यताओं को बदलने के लिये आया था। उसका एकमात्र प्रयास था, भारतीयता का अंत करना।

उसके बाद मुगलों का आक्रमण शुरू हो गया। इन सब इस्‍लामी आक्रमणकारियों का एक ही लक्ष्‍य था कि अफगानिस्‍तान की सीमा से लेकर कन्‍याकुमारी तक शांति से विकसित हो रही सनातन संस्‍कृति को तहस-नहस कर देना। उनका लक्ष्‍य था इस प्राचीन राष्‍ट्र को मुस्लिम राष्‍ट्र बनाना। मुगलों से लड़ने को एक-एककर सभी राजा-महाराजा एकजुट होने लगे। यह करीब 50 पीढ़‍ियों का लम्‍बा संघर्ष काल रहा। भारत का यह इतिहास आज भी रोंगटे खड़े कर देता है। अंतत: लगभग 200 वर्ष पूर्व मुगल आक्रांता भारत में पराजित होने लगे परन्‍तु उसी काल में ब्रिटिश आक्रमण आरम्‍भ हो गया। 1857 में ब्रिटिशों के साथ प्रथम युद्ध हुआ। उसके बाद 90 वर्ष तक संघर्ष हुआ।

विश्‍व के अनेक राष्‍ट्र इस तरह के आक्रमणों में अपनी संस्‍कृति खो चुके हैं। उधर, यूरोप में दक्षिणपंथी विचारधारा को एक बार फिर बढ़ावा मिल रहा है। सभी अपने देश की संस्‍कृति को संरक्षित करने के लिये एकजुट हो रहे हैं। भारत में भी संघर्ष हो रहा है। हालांकि, भारत पर हुये आक्रमणों में यहॉं की ऋषि परम्‍परा अक्षुण्‍य रही। वह नहीं बदली। वह आज भी प्रासंगिक और विचारणीय है। भारतवर्ष की इसी ऋषि परम्‍परा ने हमें मुगलों और अंग्रेजों से लड़ने में सदा हमारी सहायक रही हैं। आज भी समाज में व्‍याप्‍त कुरीतियों और देशद्रोह सम्‍बंधी विचारधारा से लड़ने में यही ऋषि परम्‍परा अचूक शस्‍त्र के समान साथ निभा रही हैं। वही शक्‍ति आज भी हमें पथभ्रष्‍ट होने से रोक रही है। वही ऋषि परम्‍परा हमें आज भी और आने वाले समय में भी धर्म का मार्ग दिखाती रहेगी।

यही कारण है कि 700-800 बरसों के क्रूर इस्‍लामी शासन के बाद भी भारतीय राष्‍ट्र की आत्‍मा जीवित रही और 'राष्‍ट्र दर्शन' ने संघर्ष जारी रखा। इसी से हिंदू राष्‍ट्र की प्रकृति कभी भी मुरझाई नहीं।

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