Tiananmen Square Massacre : वामपंथी खूनी इतिहास है तियानमेन चौक नरसंहार


 Tiananmen Square Massacre : तियानमेन चौक नरसंहार (3–4 जून 1989) वामपंथी अधिनायकवादी विचारधारा की अमानवीय प्रवृत्तियों और उसके छिपे हुए कुटिल उद्देश्यों का एक ज्वलंत प्रतीक है। इस दौरान न केवल हजारों निर्दोष नागरिकोंविशेषकर छात्रों और श्रमिकोंका निर्मम दमन किया गया, बल्कि करोड़ों चीनी नागरिकों के मौलिक संवैधानिक अधिकारों को भी रौंद दिया गया। यह घटना दिखाती है कि जब सत्ता जनभावनाओं से कटकर केवल दमन के बल पर शासन करती है, तो वह रक्तपात और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को कुचलने में भी नहीं चूकती।

दरअसलतियानमेन नरसंहार वामपंथी विचारधारा के चरित्र का कोई अपवाद नहीं था, बल्कि उसकी सतत अमानवीय प्रवृत्तियों की ही एक कड़ी थी। इतिहास के पन्ने पलटने पर स्पष्ट होता है कि वामपंथी अधिनायकवाद का पूरा इतिहास ऐसे ही संविधान-विरोधी अत्याचारों और दमन की घटनाओं से अटा पड़ा है। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक क्रांति के बाद लाखों विरोधियों का दमनस्टालिन के Great Purge के दौरान अनुमानित दो करोड़ से अधिक लोगों की हत्याएँ, और माओत्से तुंग के Great Leap Forward और Cultural Revolution में करोड़ों लोगों की मौतें — यह सब दिखाते हैं कि वामपंथी शासन अक्सर आलोचना और विरोध को कुचलने के लिए नरसंहार और दमन को ही नीति का रूप दे देता है।

यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि भारत के वामपंथी विचारक और संगठन भी उन्हीं वैश्विक व्यक्तित्वों — लेनिन, माओ और स्टालिन — से वैचारिक प्रेरणा लेते रहे हैंजिनकी नीतियाँ अत्याचारदमन और हिंसा से जुड़ी रही हैं। तियानमेन जैसे घटनाक्रमों से वे न केवल प्रभावित रहे, बल्कि भारत में भी वैसी ही प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने का प्रयास करते रहे।

अपनी स्थापना के एक शताब्दी से अधिक के इस कालखंड में वामपंथी आंदोलन ने भारत में अनेक रूपों में सत्ता के दुरुपयोग, संस्थागत भ्रष्टाचार, संगठित वैचारिक षड्यंत्र और हिंसक उग्रवाद को प्रोत्साहित किया। चाहे वह बंगाल और केरल की वामशासित सरकारों में राजनीतिक हिंसा का इतिहास हो, या फिर नक्सलवाद और अर्बन नक्सलिज्म के माध्यम से राज्यविरोधी हिंसक गतिविधियाँ — इन सबमें वामपंथी विचारधारा की भूमिका बार-बार सामने आती रही है।

भारतीय लोकतंत्र के विरुद्ध छद्म बौद्धिकता के माध्यम से सांस्कृतिक संस्थानों में घुसपैठराष्ट्रविरोधी विमर्श का निर्माण और युवाओं को कट्टरपंथ की ओर मोड़ना — यह सब उस दीर्घकालिक योजना का हिस्सा रहा है, जो तानाशाही प्रवृत्तियों को वैचारिक क्रांति के आवरण में प्रस्तुत करती रही है।

तियानमेन चौक की घटना – संक्षिप्त टाइमलाइन 

20 जून 1989 : सरकार ने सभी ट्रैवल वीज़ा पर रोक लगा दी। यह निर्णय इसलिए लिया गया ताकि कोई भी आंदोलनकारी देश छोड़कर अंतरराष्ट्रीय समर्थन न प्राप्त कर सके, और विरोध की आवाज़ को सीमा के भीतर ही दबा दिया जाए।

अप्रैल 1989 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के रिफ़ॉर्मवादी और जनप्रिय नेता हु याओबांग की रहस्यमयी मृत्यु ने देशभर के युवाओं, विशेषकर विश्वविद्यालयों के छात्रों, को गहरा आघात पहुँचाया। उन्हें उम्मीद का प्रतीक माना जाता था — एक ऐसे नेता के रूप में जो राजनीतिक उदारीकरण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थक था।

उनकी मृत्यु के विरोधस्वरूप और लोकतांत्रिक सुधारों की मांग को लेकर हजारों छात्रों ने बीजिंग के तियानमेन चौक पर धरना शुरू कर दिया। उनकी मांगें थीं — पारदर्शी सरकार, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, और मौलिक लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली।

यह शांतिपूर्ण विरोध तीव्र होता गया और जैसे-जैसे इसमें आम नागरिक, श्रमिक और बुद्धिजीवी शामिल होने लगे, सरकार ने इसे ‘राज्य विरोधी गतिविधि’ करार दिया। अंततः 3-4 जून 1989 की रात, चीन की जनमुक्ति सेना ने बख्तरबंद टैंकों और हथियारों से छात्रों पर हमला किया। हजारों की संख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई।

यह भयावह घटना इतिहास में “चार जून की घटना” (June Fourth Incident) या तियानमेन नरसंहार के नाम से दर्ज है — जो आज भी चीन में एक वर्जित विषय बना हुआ है।

3 जून 1989 की रात बीजिंग की सड़कों पर वह भयावह मंजर शुरू हुआ, जिसने दुनिया को स्तब्ध कर दिया। चीनी सेना ने राजधानी में प्रवेश कर गोलीबारी शुरू कर दी, जिससे प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार 35–36 लोग मारे गए।

लेकिन यह तो केवल शुरुआत थी। 4 जून की सुबह करीब 4 बजे, जब तियानमेन चौक पर हजारों की संख्या में निहत्थे छात्र, नागरिक, बच्चे और बुज़ुर्ग शांतिपूर्वक लोकतंत्र और पारदर्शिता की मांग को लेकर एकत्र थे, तब चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने अपने सबसे क्रूर रूप का प्रदर्शन किया।

सरकार ने न सिर्फ टैंक और हथियारबंद जवानों को तियानमेन चौक पर भेजा, बल्कि लड़ाकू विमानों तक की तैनाती की गई। बिना किसी चेतावनी के गोलियां बरसाई गईं। निर्दोष लोगों को कुचला गया, दौड़ते बच्चों को निशाना बनाया गया, और चौक को रक्तरंजित कर दिया गया। यह कार्रवाई सिर्फ एक नरसंहार नहीं थी — यह लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की भावना पर एक संगठित, राज्य-प्रायोजित प्रहार था।

4 जून 1989 को बीजिंग की सड़कों पर मानव रक्त की नदियाँ बह रही थीं। यह कोई युद्ध का मैदान नहीं था, बल्कि एक शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक प्रदर्शन के खिलाफ राज्य द्वारा चलाया गया सुनियोजित नरसंहार था। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने छात्रों और नागरिकों की शांतिपूर्ण मांगों का उत्तर टैंकों और गोलियों से दिया। रात के अंधेरे में बीजिंग की सड़कों पर टैंक गर्जना करने लगे और कुछ ही घंटों में लगभग 10,000 निर्दोष लोगों की जानें चली गईं — जिनमें छात्र, युवा, महिलाएँ, बुजुर्ग, और राह चलते नागरिक तक शामिल थे।

तियानमेन नरसंहार को लेकर वर्षों तक चीन सरकार ने मृत्यु संख्या को लेकर पूर्ण गोपनीयता बनाए रखी, लेकिन समय के साथ कुछ अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज़ सामने आए, जिन्होंने इस भयावह घटना की असली तस्वीर उजागर की।

चीन में तत्कालीन ब्रिटिश राजदूत एलन डॉनल्ड ने 1989 में लंदन भेजे अपने एक गोपनीय टेलीग्राम में स्पष्ट रूप से कहा था कि इस सैन्य कार्रवाई में कम से कम 10,000 लोगों की मृत्यु हुई थी। यह टेलीग्राम घटना के 28 वर्षों बाद सार्वजनिक हुआ, जिसने सरकारी आँकड़ों और वास्तविकता के बीच की खाई को उजागर कर दिया।

हांगकांग बैप्टिस्ट विश्वविद्यालय में चीनी इतिहास, भाषा और संस्कृति के विशेषज्ञ ज्यां पिए कबेस्टन (Jean-Pierre Cabestan) ने भी इस टेलीग्राम पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि ब्रिटिश राजनयिकों द्वारा भेजे गए आँकड़े “पूरी तरह भरोसेमंद” हैं और इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता।

प्रसिद्ध चीनी लेखक और सामाजिक आलोचक लियाओ यिवु ने तियानमेन नरसंहार को लेकर अपनी लेखनी के माध्यम से चीनी सत्ता की क्रूरता को बेनकाब किया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “चीन अब पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर खतरा बन चुका है।” ‘बॉल्स ऑफ ओपियम’ (Balls of Opium) नामक अपनी पुस्तक में, जो विशेष रूप से तियानमेन चौक की घटना पर आधारित है, उन्होंने लिखा, “लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हजारों लोगों को सेना ने निर्ममता से कुचल दिया।” यह पुस्तक न केवल चीन में प्रतिबंधित कर दी गई, बल्कि लियाओ यिवु को इस विचारधारा के खिलाफ बोलने के कारण जेल, गुप्त निगरानी, और अंततः निर्वासन तक का सामना करना पड़ा।

6 जून 1989 : नरसंहार के तुरंत बाद चीन में स्थित विदेशी दूतावासों ने अपने-अपने नागरिकों को सुरक्षा कारणों से देश छोड़ने के निर्देश जारी किए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थिति को अस्थिर और खतरनाक माना गया।

12 जून 1989 : चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने पूरे देश में सभी छात्र और कर्मचारी यूनियनों पर प्रतिबंध लगा दिया। यह कदम संगठित असहमति की संभावना को पूरी तरह समाप्त करने की दिशा में था।

16 जून 1989 : आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्र नेताओं की व्यापक गिरफ्तारी शुरू हुई। विभिन्न विश्वविद्यालयों से जुड़े 1000 से अधिक छात्र नेताओं को चिन्हित कर हिरासत में लिया गया।

17 जून 1989 : बीजिंग में सार्वजनिक उदाहरण स्थापित करने हेतु 8 नागरिकों को मृत्युदंड दिया गया। यह संदेश स्पष्ट था – राज्य के विरुद्ध उठी हर आवाज़ को निर्ममता से कुचला जाएगा।

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