चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने की है समृद्ध भारत की व्‍याख्‍या


नीरज तिवारी

दार्शनिक, घुमक्कड़, अनुवादक और भारत एवं चीन के मध्‍य मैत्रीय सम्‍बंध स्‍थापित करने में समन्‍वयक की भूमिका निभाने के लिये ह्वेन त्सांग को सदैव याद किया जाएगा। ‘प्रिंस ऑफ ट्रैवलर्स ‘अर्थात' यात्रियों का राजकुमार कहे जाने वाले ह्वेन त्सांग की 5 फरवरी, 664 ई. मृत्‍यु हुई थी। वह अन्‍य चीनी यात्री फ़ाह्यान के करीब 225 वर्ष उपरांत भारत पहुंचे थे। ह्वेन त्सांग ने गांधार, कश्मीर, पंजाब, कपिलवस्तु, बनारस, गया एवं कुशीनगर की यात्रा की थी लेकिन उनका सबसे अधिक एवं महत्वपूर्ण समय कन्नौज में बीता था। तब वहां के राजा हर्षवर्धन थे। उनके ही निमंत्रण पर वह वर्ष 635 से 643 ईसवी यानी 8 साल तक कन्नौज में रहे थे। 


मेम त्रिपिटक के रूप में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेन त्सांग बौद्ध भिक्षु थे। उनका जन्म चीन के लुओयंग स्थान पर वर्ष 602 ई. में हुआ था। उन्‍होंने 6 वर्षों तक वर्तमान के बिहार राज्‍य में स्थित नालंदा विश्वविद्यालय में अध्ययन भी किया था। तत्कांलीन समय में यूं तो भारत आने वाले चीनी यात्रियों की संख्या बहुत थी। मगर इनमें से कुछ प्रमुख यात्रियों को आज भी याद किया जाता है। इनके नाम हैं- फ़ाह्यान, ह्वेन त्सांग और इत्सिंग। जहां फ़ाह्यान ने भारत यात्रा गुप्त काल में की थी। वहीं, ह्वेन त्सांग ने राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत भ्रमण किया था। इसके अतिरिक्त इत्सिंग ने भारत दर्शन सबसे बाद में किया था। इन सभी यात्रियों ने भारत में बौद्ध धर्म का अध्ययन किया और बौद्ध ग्रंथों को संकलित करने का कार्य किया। उन्होंने उस समय के भारत की प्रशासनिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति के बारे में विस्तार से वर्णन किया है। ह्वेन त्सांग ने अपनी पुस्तक 'सी-यू-की' या 'रिकॉर्ड ऑफ़ द वेस्टर्न कंट्रीज़' में भारत का विस्तृत विवरण लिखा है। इसीलिए चीनी यात्रियों में सर्वाधिक महत्व ह्वेन त्सांग का ही है।


वर्णन मिलता है कि ह्वेन त्सांग ने बौद्ध दर्शन का अध्ययन अपने देश चीन में शुरू किया था। मगर जल्‍द ही मूल ग्रंथ में कई विसंगतियों एवं विरोधाभासों से उनका मन खिन्‍न हो गया। वह अपने प्रश्नों का सटीक उत्‍तर अपने चीनी गुरुओं से चाह रहे थे लेकिन कोई समाधान न मिल पाने पर हताश हो गये। अंतत: उन्होंने बौद्ध धर्म के स्रोत भारत में जाकर अध्ययन करने का निर्णय लिया। यात्रा सम्‍बंधि अनुमति पत्र हासिल न कर पाने के कारण उन्होंने चोरी-छिपे सू-चुआन छोड़कर अपनी यात्रा आरम्‍भ कर दी। इस सम्‍बंध में विलियम डेलरिंपल अपनी पुस्‍तक 'द गोल्डन रोड, हाउ एंशियंट इंडिया ट्रांसफ़ॉर्म्ड द वर्ल्ड' में लिखते हैं, 'ह्वेन त्सांग की इच्‍छा नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर वहाँ पढ़ाई करने की थी। उस समय नालंदा में दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध पुस्तकालय हुआ करता था। सू-चुआन से नालंदा की दूरी साढ़े चार हज़ार किलोमीटर से भी ज़्यादा थी.'


यात्रा आरम्‍भ करते समय उनकी आयु 29 वर्ष की थी। वर्ष 629 ई. में यात्रा प्रारम्भ करने के बाद वह ताशकन्द, समरकन्द होते हुए वर्ष 630 ई. में भारत के गांधार प्रदेश पहुंचे थे। इसके बाद वे सबसे पहले श्रावस्ती पहुंचे। फिर वे सारनाथ गये जहाँ बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था। फिर वह पाटलिपुत्र गये जहाँ सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। बुद्ध को तलाश करने की यात्रा के अंत में ह्वेन त्सांग, भगवान बुद्ध की जन्मस्थली कपिलवस्तु होते हुए बोधगया पहुंचे थे। खैर, अब समय आ गया था कि ह्वेन त्सांग अपने मनपसंद विश्‍वविद्यालय नालंदा जाकर अपनी यात्रा को सफल बनाते।


नालंदा में प्रवेश करने का वर्णन करते हुए ह्वेन त्सांग ने अपनी पुस्‍तक ‘सी यू की‘ में लिखा है, 'मैं नालंदा की धरती पर स्थानीय नियमों का पालन करते हुए अपने घुटनों के बल घुसा। मैं शीलभद्र के पास सम्मान दिखाते हुए अपने घुटनों और कोहनियों के बल रेंगता हुआ पहुंचा। उनको देखते ही मैंने उनके पैर चूमे और उनके सामने दंडवत लेट गया।' ह्वेन त्सांग ने आगे लिखा है कि उन्‍होंने नालंदा विश्‍वविद्यालय में भव्‍य व्याख्यान कक्षों, स्तूपों, मंदिरों और 300 कमरों को देखा। उस समय वहाँ दस हज़ार भिक्षु और छात्र रहा करते थे। वहाँ महायान और निकाय बौद्ध धर्म, वेदों, तर्कशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, चिकित्सा शास्त्र, गणित, खगोलशास्त्र और साहित्य की पढ़ाई होती थी। ह्वेन त्सांग ने अपनी पुस्‍तक में आगे लिखा है, 'नालंदा में छात्रों की प्रतिभा और क्षमता उच्चतम स्तर की थी। इस विश्वविद्यालय के नियम बहुत कड़े थे और छात्रों को उनका पालन करना होता था। सुबह से लेकर शाम तक वे सभी वाद-विवाद में व्यस्त रहते थे जिसमें वरिष्ठ और युवा बराबरी से भाग लेते थे। हर दिन लगभग 100 अलग-अलग कक्षों में व्याख्यान दिये जाते थे और छात्र बिना एक क्षण गँवाए बहुत मेहनत से पढ़ाई करते थे।'


ह्वेन त्सांग की भारत यात्रा का वृतांत हमें चीनी ग्रंथ ‘सी यू की‘, वाटर्ज की पुस्तक ‘On Yuan Chwang's Travel In India ‘ एवं ह्मुली की पुस्तक 'Life of lliven Tsang' में मिलता है। ह्वेन त्सांग के विवरण से तत्कालीन भारत के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं प्रशासकीय पक्ष पर प्रकाश पड़ता है।  ह्वेन त्सांग ने तत्कालीन भारत को हर क्षेत्र में समृद्धिशाली बताया है। उस समय गाय का मांस खाने पर पूर्णतः प्रतिबंध था। ह्वेन त्सांग के अनुसार, कन्नौज में लगभग 100 संघाराम एवं 200 हिन्दू मंदिर थे। ह्वेन त्सांग ने उस समय रेशम एवं सूत से निर्मित 'कौशेय' नामक वस्त्र का भी वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने क्षौम, लिनन, कम्बल जैसे वस्त्र का भी वर्णन किया है। उस समय लोग खेती का कार्य करते थे। ह्वेन त्सांग के अनुसार, उस समय अन्तर्जातीय विवाह, विधवा विवाह एवं पर्दे की प्रथा का प्रचलन नहीं था। यद्यपि मुगल आक्रांताओं के कारण सती प्रथा का प्रचलन था। शिक्षा पर प्रकाश डालते हुए ह्वेन त्सांग ने लिखा है कि शिक्षा धार्मिक थी। लिपि ब्राह्नी एवं भाषा संस्कृत थी। संस्‍कृत ही विद्धानों की भाषा कही जाती थी। इस समय शिक्षा ग्रहण करने की आयु 9 वर्ष से 30 वर्ष के बीच निर्धारित थी।


चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने छठी शताब्दी की अपनी महान यात्रा का संस्‍मरण लिखते हुये कुंभ का भी वर्णन किया है। उन्‍होंने अपनी पुस्‍तक ‘सी यू की‘ में राजा हर्षवर्धन के दान का जिक्र करते हुए लिखा है, 'वे 75 दिनों तक दान किया करते थे। जब तक कि उनके राजसी वस्त्र समेत उनके पास का तमाम धन खत्म न हो जाए. राजसी वस्त्र दान करने के बाद वे अपनी बहन राजश्री के वस्त्र मांग कर पहना करते थे।' वह आगे लिखते हैं, ‘देशभर के शासक धार्मिक पर्व में दान देने प्रयाग आते थे। संगम किनारे स्थित पातालपुरी मंदिर में एक सिक्का दान करना हजार सिक्कों के दान के बराबर पुण्य वाला माना जाता है। प्रयाग में स्नान सभी पाप धो देता है।'


ज्ञान प्राप्त करने के बाद ह्वेन त्सांग ने वर्ष 643 ई. में स्वदेश जाने के लिए प्रस्थान किया। वह काशागर, यारकन्द, खोतान होता हुये 645 ई. में चीन पहुंचे। ऐसा वर्णन मिलता है कि वह अपने साथ भारत से लगभग 150 बुद्ध के अवशेषों के कण, सोने, चांदी एवं संदल से बनी बुद्ध की मूर्तियाँ और 657 पुस्तकों की पाण्डुलिपियों को ले गये थे। अपना शेष जीवन उन्होंने बौद्ध धर्मग्रंथों का संस्कृत से चीनी भाषा में अनुवाद करते हुये बिताया। साथ ही, चीन में बौद्ध चेतना मत की स्थापना कर भारत और चीन के मध्य समन्वय स्‍थापित करने का कार्य किया।


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