जीवन के आठ दिन काफी कुछ सिखाते हुए बीते. इन दिनों जहां रहा, वहां न तो कोई दिक्कत थी न परेशानी. ऐसा लग रहा था कि दुनिया में सिर्फ दो ही काम हो रहे हैं. या तो लोग खेत में गेहूं और मक्का कटवा-पिटवा रहे हैं या शादी,जनेऊ और तेरही में न्योता निभा रहे हैं. इस ब्लॉग में उन्हीं बातों पर चर्चा करेंगे. गांव की यादों को सहेजने की कोशिश कर रहा हूं.
वहां न तो कोरोना की चौथी लहर की रोज ही अपडेट पर कोई चर्चा होती है न यूक्रेन-रूस युद्ध पर कोई ज्ञान बघारता है. यहां किसी को इस बात से कोई फर्क नहीं है कि पीएम मोदी साल 2024 में होने वाले संसदीय चुनाव की तैयारी में क्या पैंतरेबाजी आजमा रहे हैं. यहां तो फर्क इससे है कि फलनवां के लड़के की नौकरी लग चुकी है, अब उसकी बोली कितनी लगेगी? कुल मिलाकर कुछ दिन दुनिया से कटा रहा. अब फिर उसी राह पर लौट रहा हूं. छुट्टियां खत्म हो चुकी हैं. छोटे भाई की शादी में भसुर बनने का गौरव लेने आया था. परम्परा पूरी हुई. यादों की डायरी में जिंदगी के सात पन्ने सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गए. इनमें जिनके नाम दर्ज हुए उनमें हैं छोटे भाई शुभम, प्रियांशु, अभिनंदन, छोटू, सोनू चाचा (नेवी वाले). बच्चों में भांजा आरव और भांजी आकृति. फुफेरे बड़े भाई संजय भैया का इस अंदाज में बात करना कि वह अब बात खत्म करते ही सो जाएंगे, बहुत याद आता है. यूं भी भोजपुरी में बात करते समय वाक्य का कोई एक शब्द घसीटकर लंबा करके बोला जाता है. मगर उनकी हर छोटी बात भी घसीटकर बोलने के कारण लंबी हो जाती है. उनके छोटे भाई और मेरे बड़े भाई मोहन मिश्र का अधूरी उम्र में जाना. उनके बच्चों को देखना. उनकी पत्नी का उदास चेहरा देखकर बरबस ही कोरोना काल की डरावनी याद को ताजा कर गई. इस बीच बहन प्रियंका और स्वेता के साथ ही उनके पति क्रमश: पंकज जी और विकास जी से मिलना और बतियाना भी बहुत अच्छा रहा. हमारे खानदान के अधिकतर लोग पश्चिम बंगाल के वर्धमान में रहते हैं. उन लोगों से मिलना बहुत अच्छा लगा. इतना तो तय है कि जल्द ही एक यात्रा मुझे बंगाल की गलियों तक पहुंचाने वाली है. वहां बसे अपने परिवार से मिलवाने वाली है.
यह बताना भी जरूरी है विवाह बंधन में बंधा कौन है? दरअसल, मेरे पिता तीन भाई हैं. पापा सबसे बड़े हैं. उनसे छोटे यानी मंझिले चाचा के बेटे लौ (आदित्य तिवारी) की शादी थी. दुल्हन का नाम जूही उर्फ सोनी है. हर कार्यक्रम अच्छा गया. सच कहूं तो इस शादी में सब अच्छा लगा सिवाय आर्केस्ट्रा के बेहूदा डांस के. भोजपुरी को बदनाम करने वाले गीत पर फूहड़ता वाले डांस के. हालांकि, बिहार की इन आर्केस्ट्रा वाली लड़कियों की जिंदगी पर विस्तार से लिखूंगा. मैटेरियल अगले ब्लॉग में परोसा जाएगा. चलती ट्रेन में ऐसे विषयों पर लिखने का माहौल नहीं बन पा रहा. वहीं, परिवार के एक सदस्य के गले से सोने की चेन मंदिर में चोरी कर ली गई. यह भी ठीक नहीं रहा. मगर अरेराज बाबा धाम में मौजूद ऐसे चोरों पर शंकर भगवान क्या करेंगे, यह वही जानें.
लखनऊ की शादियों से इतर पूड़ी-सब्जी वाली दावतों से दूर दाल-भात के साथ आलू, टमाटर, बैंगन वाली चटपटी स्वाद वाली सब्जी की दावतों को छक के खाने का दौर आया था. इसके अपन पुराने दीवाने हैं. यूपी में जिसे मातृपूजन कहते हैं, उसे ही बिहार में मटकोर कहा जाता है. इसमें दाल-भात खाने का अपना ही मजा है. मुझे इसका बचपन से ही शौक है. मैं दूरी की वजह से इन दावतों में शरीक नहीं हो पाता मगर इसमें बढ़-चढ़कर कहने वाली कोई बात नहीं कि बस में होता तो एक भी भोज चटखारे लिए बिना जाने न देता. कोरोना के बाद ट्रेन में पहली बार बैठने. कई शाखाओं में बंट चुके खानदान के दादा,चाचा और चचेरे भाइयों से मिलने का लुत्फ अलग ही रहा. वह भात वाले भोज से ज्यादा बेहतरीन अनुभव देने वाला रहा. सात दिनों में पटिदारी को भी समझ गया. यह समझ आया कि जब किसी खानदान की शाखाएं बढ़ जाती हैं तो सभी हर बेमतलब की बात में भी 'अंदर की बात' तलाशने लगते हैं. कहो दिल से मगर दिमाग लगाने लगते हैं. फिर भी जो सबसे अहम है वह यह है कि परिवार में कोई भी दिक्कत हो तो एक साथ कई हाथ स्वत: आगे बढ़ जाते हैं. सलाह-मशविरा देने-लेने का फर्ज निभाने लगते हैं. बिगड़ी बात संभाल लेते हैं. यही खानदान की मजबूती है.
शहरों में जहां एक-एक इंच जमीन में हम सब सिमटे रहते हैं. वहीं, गांव आते ही खेत-बाग और खलिहान की बातें करने लगते हैं. इसे ही चंद पल की अमीरी में जीना कहते हैं. मगर यही तो विरासत है. इससे बेहतर क्या होगा कि मामा के गांव का हर शख्स मामा पुकारा जाता है. आपके पिता यूं तो रोज ही आपको अपने दोस्तों के साथ चुहल करते देखते हैं मगर अपने पिता को अपने बचपन के साथियों के साथ चुहल करते देखने का अलग ही सुख है. उसी सुख का आनंद लेकर लौट रहा हूं. एक वादे के साथ कि जल्द ही सबसे दोबारा मुलाक़ात होगी.
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