सावन में यादें आम के पेड़ की, चिड़ियों के घोसले की और पानी में अटखेलियां करते कछुये की


जब छोटा था तो घर के ठीक सामने करीब 25-30 मीटर की दूरी पर एक आम का पेड़ हुआ करता था. लोग बताते थे जमीन ग्राम समाज की थी. खैर, उस पेड़ पर एक घोसला हमेशा आबाद रहता था. उसकी जड़ से करीब दो मीटर दूर एक गड्ढा हुआ करता था. उसमें सालभर एक कछुआ रहता था. 

सावन का महीना आते ही उस पेड़ की मोटी शाख पर मोटी रस्सी के सहारे एक झूला बांधा जाता था. दोपहर वहीं गुलज़ार हुआ करता था. खटिया लगाकर या चटाई बिछाकर गणित के न जाने कितने सवाल मैंने वहीं हल किये होंगे. घर के आस-पास रहने वाले पड़ोसी भी उसी पेड़ की छांव में दिन गुजार देते थे. जोरदार बरसात में कई बार मैं अपने घर में शरण लेने की बजाय उसी दरख़्त की मोटी जड़ पर खड़े होकर तने से पीठ टिकाकर खड़ा रहता था. उसकी जड़ जमीन को चीरकर बाहर आ चुकी थी. 

इसी सावन में उस गड्ढे का कछुआ भी तैरता नज़र आता था. आम तो वह पेड़ बेहिसाब खिलाता ही था. कइयों बार पड़ोसियों की एकजुटता से उस पेड़ के नीचे सांझा चूल्हा भी बना. शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह का भोज बना करता था. उसी पेड़ के नीचे बैठे किसी दोपहर में मुझे घड़ी देखना सिखाया गया था. भयंकर लू में भी उसकी छांव शीतलता ही देती थी. पूरा सावन झूला झूलते गुज़र जाया करता था. 

हां, बुरा यही लगता था कि उस आम के पेड़ पर अक्सर कौआ का बच्चा पाया जाता. हम ग़लती से उसे छू भी देते तो कौव्वों का झुंड हमारी बैंड बजा देता. सिर पर मुरैठा बांधकर हाथ में लाठी लहराते हुये भागना पड़ता. फिर रिश्तेदारों को पीसीओ से बिहार में एसटीडी कॉल कर मेरे मरने की झूठी कहानी सुनाई जाती ताकि कोई दहाड़ मारकर रो दे और कौव्वों की चोंच से टकले पर लगने वाली चोट के रूप में मानी जाने वाली आयु हानि से राहत मिल सके. यह एक पुरानी दकियानूसी परम्परा थी. धीरे-धीरे सभी शातिर हो गये और जैसे ही मेरे मर गुजरने की सूचना दी जाती सब हंस पड़ते. इसी के साथ मेरी उम्र बढ़ाने की कवायद धरी की धरी रह जाती है. खैर, मजा भी इन्हीं चीजों में था. अब दकियानूसी कहो या कुछ और, खैर... 

फिर एक दिन अचानक ही कुछ सफेदपोश आये. सबने सफेद जूते और सफेद रंग का ही सफारी शूट पहन रखा था. आनन-फानन में घोषणा की गई कि वह उस जमीन और पेड़ के असली मालिक थे. देखते ही देखते उसी दिन आरी चली. पेड़ धराशायी हो गया. घोसला गिर गया. कछुआ जो गड्ढे में था. उसी दिन दबकर मर गया. 

चंद दिनों के बाद एक और क़ाबिल आये और पता चला कि उन्होंने औने-पौने दाम में उस जमीन को खरीद लिया है. कई दिनों तक चहारदीवारी बनी रही. चंद महीने ही बीते होंगे एक तीसरे क़ाबिल ने उस जमीन को बाजार से कम कीमत पर खरीदकर मकान बनवा दिया. 

मकान बनाकर तकरीबन दो साल वहां रहने के बाद एक चौथे क़ाबिल को उसे बाजार से एक बार फिर कम कीमत पर बेच दिया. अब वहां न पेड़ है और न ही कोई याद...सावन का झूला भी जीवन से नदारद है. ऐसे ही न जाने कितने आम, महुआ, नीम और पाकड़ सरीखे पेड़ मेरे आस-पास कटे और सफेदपोश लोगों ने औने-पौने दाम पर उन जमीनों को लोगों को बेचकर हरियाली मिटा दी.

अब सावन तो आता है मगर बारिश नहीं...सावन के पहले सोमवार की आप सबको बधाई.

#लिखने_की_बीमारी_है।।।।। 

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