पढ़ें एक बच्चे और बुज़ुर्ग की जिंदादिल ज़िंदगी का कड़वा सच


यह कहानी है एक बच्चे और बुजुर्ग की। दोनों की ज़िंदगी अलग है। दोनों एक-दूजे से अंजान हैं। हालांकि, दोनों हंसमुख हैं। मैंने उन्हें कभी उदास नहीं देखा। कभी भी हताश नहीं देखा। इस बीच उनमें एक और समानता है कि वे मेरे घर की दुकान पर आते हैं। हर बार मुझसे कभी पांच तो कभी दस मिनट तक बतियाते हैं। इस बीच हम चर्चा करते हैं कभी मौसम पर तो कभी महंगाई पर। कभी फसलों पर तो कभी पेड़ों की अंधाधुन कटाई पर। लेकिन, कुछ रोज़ पहले उस लड़के के बारे में जानकर मैं हैरान रह गया और आज चचा ने भी सोचने पर मजबूर कर दिया।

दरअसल, करीब तीन दिन पहले वह लड़का कुछ सामान लेने आया था। अभी वो जा ही रहा था कि पानी जोरों से बरसने लगा। मैं भी बारिश देख दुकान से बाहर आ गया। फिर उससे बात करने लगा और पूछ बैठा वही समझदारी का सवाल, तुम स्कूल क्यों नहीं जाते? सवाल सुनने के बाद वो थोड़ी देर चुप रहा। पहले बारिश की बूंदों को देखता रहा फिर मेरी ओर देख हंस पड़ा।

फिर उसने बड़े ही सलीके से गम्भीर अंदाज़ में कहा, 'स्कूल चला जाऊंगा तो घर कैसे चलाऊंगा?' बिना रुके 15 साल के बच्चे ने कहा, 'पापा तो तीन साल पहले ही मर गए। मुझे और तीन बहनों को मां के भरोसे छोड़ गए। आप ही बताइए, अम्मा घर अकेले कैसे चलाएंगी। मैं स्कूल चला जाऊंगा तो हम खाएंगे क्या?'

यकीन मानिए, मेरे एक सवाल ने उसकी सोई भड़ास को जगा दिया था। वह बिना रुके आगे कहता गया, 'लेकिन दद्दा मैं अपनी बहनों को पढ़ा रहा हूं। अम्मा का हाथ बंटा घर की जिम्मेदारी उठा रहा हूँ। कभी-कभी बहनों को पढ़ता देख मैं भी उनके बगल में जा बैठता हूं। भइया, तब अच्छा लगता है।

उसकी भड़ास शायद शांत हो गई थी, उसने बिना रुके बारिश में ही अपनी साइकिल आगे बढ़ा दी।' और मैं यही सोचता रह गया कि मैंने इस बच्चे को पहले तो कभी हताश या निराश देखा ही नहीं।

अब कहानी के अगले किरदार की बात करते हैं। चचा की उम्र शर्तिया सत्तर पार है। वह हमारी दुकान से करीब आधा किलोमीटर दूर एक ठेला लगाते हैं। राहगीरों को पान-मसाला, सिगरेट और बीड़ी बेचकर घर चलाते हैं। हमेशा खुश रहते हैं और मुस्कुराते हैं। आज की बारिश में उनके ठेले के पास से गुज़रते समय रुक गया और फिर से समझदारी वाला सवाल पूछ बैठा, 'चचा, इस काम से और इस सुनसान सड़क पर दिनभर में कितनी आमदनी कर लेते हैं?' उन्होंने कहा, 'बेटा घर रुपए से नहीं हिम्मत से चलता है।  एक समय में मैं उन्नाव जिले के पुरवा क्षेत्र में दाल-चावल और अनाज का गल्ला लगाता था। बहुत कमाई की। चार बेटियों की शादी की। घर बनवाया। इकलौते लड़के को पढ़ाया लेकिन वो पढ़ने में कमज़ोर था। फिर भी उसे नौकरी के लायक बना ही दिया। अब वह अहमदाबाद में एक कम्पनी में कोई नौकरी करता है।'
मैं चुपचाप उन्हें सुन रहा था। उनका गर्व से बताया गया जीवन इतिहास सुन रहा था। उनके चेहरे पर भी उत्साह दिख रहा था जो अचानक ही डबडबाने लगा। उन्होंने अपनी कहानी को आगे बढ़ाते हुए कहा, 'मेरे एक दामाद असमय ही गुज़र गए थे। उनकी दो बेटियां थीं। लड़की के ससुराल वाले उनकी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते थे। वे उनकी शादी नहीं करना चाहते थे लेकिन मैंने उस जिम्मेदारी को भी निभा दिया। अपनी दोनों नतनियों की शादी की। बस, रुपया अपने बुढ़ापे के लिए जुटा नहीं पाया। लेकिन, अब सब सुखी हैं। बस मैं अपने घुटने के दर्द से परेशान हूं। और हां, इस दुकान से मैं कुछ कमा नहीं पाता हूं बस दो टाइम का खाना जुटा लेता हूं। खैर, अब मुझे रुपये की कोई ज़रूरत भी नहीं है।'

अब इन दो जिंदगियों की कहानी अपनी-अपनी दिशा में चल रही है। हमें कभी भी निराश न होने का संदेश दे रही है....
#लिखने_की_बीमारी_है।।।।।

Comments