प्रकृति और 'हम'


सुनो, प्रकृति की बांसुरी की धुन को
जो हाड़ कंपा रही है
मन को डरा रही है
हर बूंद की कीमत प्‍यास बढ़ाकर दर्शा रही है
देखो, महान आकाश के छोर तलाशने की होड़ को
खुशियों के गीत गाते भटके मुसाफिर हैं हम 
उम्‍मीद की धरा पर कोशिशों के हल जोतने वाले
निर्वात माहौल में भी सजीव पशु की तरह
ऊंघते, चीखते, सुस्‍त और मलंग अठखेलियां करने वाले
सूखी और दरकी हुई धरती के पोषक हैं हम
कटने के डर से लाचार हो चले वनों के कारक
जो सुन चुके हो धुन तो सुनो
बांसुरी की धुन में उदासी है
विकास की अंधाधुन दौड़ जारी है
आओ, धरा को हरियाली दें
पौधरोपण की बारी है, एक बीज रोप दें...

Comments

Unknown said…
वाह नीरज तुम तो गजब का लिखते हो...