भारत के राष्‍ट्रपतियों का विवादों से रहा है गहरा नाता

राजेंद्र प्रसाद


मूलत: बिहार के रहने वाले राजेंद्र प्रसाद देश के पहले राष्‍ट्रपति थे. 26 जनवरी 1950 से लेकर 12 मई 1962 तक राष्‍ट्रपति की जिम्‍मेदारी संभाली थी. वे अकेले ऐसे राष्‍ट्रपति रहे हैं जिन्‍होंने दो बार यह पदभार संभाला है.
भारत के पहले राष्‍ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बीच हिंदू कोड बिल को लेकर विवाद गर्मा गया था. हालांकि, इस बीच दोनों के बीच मर्यादित रूप से ही विवाद नजर आया था. दरअसल, इस विवाद की शुरुआत हुई थी 15 सितंबर, 1951 को. उस दिन इस बिल को संसद के पटल में रखा गया था. मगर उसी दिन राजेंद्रजी ने प्रधानमंत्री नेहरू को एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा था, 'मेरा यह अधिकार है कि जब भी संसद में कोई बिल पास हो तो मैं उसका परीक्षण करूं. मगर ऐसा करने के बाद यदि मैंने संसद में पारित बिल पर सवाल उठाया तो उससे सरकार पर सवाल उठेगा. ऐसे में मेरे उठाए गए कदम से सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी.' राजेंद्रजी की इस चिट्ठी को नेहरू ने गंभीरता से लिया. उन्‍होंने भी इसका त्‍वरित जवाब भेज दिया, जिसमें कहा गया था, 'यकीनन राष्‍ट्रपति को यह अधिकार है कि संसद में पारित किए गए किसी भी बिल पर अपना विचार व्‍यक्‍त करें मगर उन्‍हें फैसला लेते समय सरकार के हित का भी ध्‍यान रखना चाहिये.' इसके जवाब में राजेंद्रजी ने लिखा था, 'वह अपने अधिकारों का इस्‍तेमाल करने से हिचक नहीं रहे हैं.' कई दिनों तक चले इस पत्राचार युद्ध के साथ ही केंद्र सरकार और राष्‍ट्रपति के अधिकार को लेकर बहस का माहौल बन गया था. यह पहला मौका था जब बिल को लेकर राष्‍ट्रपति और प्रधानमंत्री आमने-सामने आ गए थे.


सर्वपल्‍ली राधाकृष्‍णन

सर्वपल्‍ली राधाकृष्‍णन देश के दूसरे राष्‍ट्रपति रह चुके हैं. 13 मई 1962 से 13 मई 1967 तक राष्‍ट्रपति का पदभर संभालने वाले राधाकृष्‍णनजी को एक महान विचारक व लेखक के रूप में याद किया जाता है. वे दक्षिण भारत से ताल्‍लुक रखने वाले पहले राष्‍ट्रपति हैं.
बतौर उप-राष्‍ट्रपति रहते हुए राधाकृष्‍णनजी का कार्यकाल विवाद रहित रहा है. मगर राष्‍ट्रपति बनने के बाद उनका पंचवर्षीय कार्यकाल काफी चुनौती वाला साबित हो गया था. दरअसल, निर्विवाद तरीके से उप-राष्‍ट्रपति की भूमिका निभाने पर जवाहर लाल नेहरू ने उन्‍हें साल 1957 में ही राष्‍ट्रपति बनाने की इच्‍छा जताई थी. मगर मौलाना आजाद के नेतृत्‍व में विरोध होने के कारण उनकी यह मंशा पूरी नहीं हो सकी थी. मगर नेहरू ने 1962 में उन्‍हें राष्‍ट्रपति बनवा दिया था. हालांकि, उनके कार्यकाल की शुरुआत होते ही चीन से भारत का विवाद हो गया था. इधर नेहरूजी की मौत के बाद देश की स्‍थिति डगमगा गई. उधर, सितंबर 1965 में पाकिस्‍तान से हुआ युद्ध देश का अर्थव्‍यवस्‍था को काफी कमजोर कर गया. साथ ही, ताशकंद में लाल बहादुर शास्‍त्रीजी की मौत के बाद देश को गहरा झटका लगा था.


जाकिर हुसैन 

13 मई 1967 से लेकर 3 मई 1969 तक राष्‍ट्रपति की कुर्सी पर काबिज रह चुके जाकिर हुसैन अलीगढ़ मुस्‍लिम यूनिवर्सिटी में बतौर वाइस चांसलर भी अपनी सेवा दे चुके हैं. उन्‍हें पद्मभूषण व भारत रत्‍न दोनों से सम्‍मानित किया गया था. उनका निधन कार्यालय में काम करते समय ही हो गया था. वे प्रथम मुस्‍लिम राष्‍ट्रपति होने के साथ ही सबसे कम समय तक राष्‍ट्रपति रहने के लिए भी जाने जाते हैं.
जाकिर हुसैन के जीवनकाल में विवादों का जिक्र इतिहास में भी न के बराबर मिलता है. हालांकि, उनकी असामयिक मृत्‍यु के बाद देश की राजनीति में उथल-पुथल का दौर जरूर शुरू हो गया था. जाकिरजी बेहद जमीनी और शिक्षा के व्‍यापक विस्‍तार के प्रति समर्पित सेवक थे. उन्‍होंने अपना पूरा जीवन महात्‍मा गांधीजी के आदर्शों पर चलते हुए गुजार दिया तथा देश विभाजन के समय भी उन्‍होंने मुस्‍लिम समुदाय को बंटने से रोकने में अहम भूमिका अदा की थी.



वीवी गिरि 

भारत के तीसरे राष्‍ट्रपति जाकिर हुसैनजी की असामयिक मृत्‍यु के बाद वीवी गिरि जी को देश का चौथा प्रथम नागरिक बनने का अवसर मिला था. गिरिजी का इस पद पर नियुक्‍त होना ही पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रभुत्‍व वाले कार्यकाल की शुरुआत के रूप में देखा जाता है. आपने तीन मई 1969 से लेकर 20 जुलाई 1969 तक राष्‍ट्रपति के पद का भार संभाला था.
दरअसल, अगस्त 1969 में हुए पांचवें राष्ट्रपति के चुनाव में. यह पहला मौका था, जब राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन के असामयिक निधन के कारण किसी राष्ट्रपति के कार्यकाल के बीच में ही चुनाव कराने की ज़रूरत पड़ गई थी. इस चुनाव का दृश्य अद्भुत था, जब ‘स्वतंत्र’ उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहे उपराष्ट्रपति वीवी गिरि ने कांग्रेस पार्टी के ‘आधिकारिक’ उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को शिकस्त दी थी. इसे 1967 के आरंभ और चौथे आम चुनाव के समय से शुरू हुए सियासी घटनाक्रम के संदर्भ में ही समझा जा सकता है. 50 साल पहले हुए इस चुनाव ने कई मायनों में एक युग के अंत की घोषणा की. हालांकि, कार्यवाहक राष्‍ट्रपति के पद से वीवी गिरिजी ने कुछ माह के बाद ही इस्‍तीफा दे दिया था.



मोहम्‍मद हिदायतुल्‍लाह 

देश के 11वें मुख्‍य न्‍यायाधीश रह चुके मोहम्‍मद हिदायतुल्‍लाहजी को वीवी गिरि के इस्‍तीफे के बाद राष्‍ट्रपति का पदभार सौंपा गया था. उन्‍होंने 24 अगस्‍त 1969 से 24 अगस्‍त 1974 तक राष्‍ट्रपति पद का जिम्‍मा संभाला था. भारत के पहले मुस्लिम मुख्य न्यायाधीश बनने वाले हिदायतुल्‍लाहजी ने दो अवसरों पर भारत के कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में भी कार्यभार संभाला था.
भारत ज्ञानकोश के मुताबिक, भारत के संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रपति निर्वाचन के संबंध में तो आवश्यक नियम बनाए थे, लेकिन उन्होंने एक भूल कर दी थी. उन्होंने उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति पद का दावेदार मान लिया, यदि किसी कारणवश राष्ट्रपति का पद रिक्त हो जाता है तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति पद किसे और कैसे प्रदान किया जाए? यह स्थिति 3 मई, 1969 को डॉ. ज़ाकिर हुसैन के राष्ट्रपति पद पर रहते हुए मृत्यु होने से उत्पन्न हुई. तब वाराहगिरि वेंकट गिरि को आनन-फानन में कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया गया, जिसका संविधान में प्रावधान था लेकिन भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति पद हेतु निर्वाचन किया जाता है. कार्यवाहक राष्ट्रपति बनने के बाद भी वीवी गिरि राष्ट्रपति का चुनाव लड़ना चाहते थे. मगर इसके लिए वह कार्यवाहक राष्ट्रपति अथवा उपराष्ट्रपति पद का त्याग करके ही उम्मीदवार बन सकते थे. ऐसी स्थिति में दो संवैधानिक प्रश्न उठ खड़े हुए जिसके बारे में संविधान में कोई व्यवस्था नहीं की गई थी. प्रथम प्रश्न यह था कि कार्यवाहक राष्ट्रपति रहते हुए वीवी गिरि अपना त्यागपत्र किसके सुपुर्द करें और द्वितीय प्रश्न था कि वह किस पद का त्याग करें- उपराष्ट्रपति पद का अथवा कार्यवाहक राष्ट्रपति का? तब वीवी गिरि ने विशेषज्ञों से परामर्श करके उपराष्ट्रपति पद से 20 जुलाई 1969 को दिन के 12 बजे के पूर्व अपना त्यागपत्र दे दिया. यह त्यागपत्र भारत के राष्ट्रपति को सम्बोधित किया गया था. यहां यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि कार्यवाहक राष्ट्रपति पद पर वह 20 जुलाई, 1969 के प्रात: 10 बजे तक ही थे. यह सारा घटनाक्रम इस कारण सम्पादित हुआ क्योंकि 28 मई 1969 को संसद की सभा आहूत की गई और अधिनियम 16 के अंतर्गत यह क़ानून बनाया गया कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों की अनुपस्थिति में भारत के उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा इनकी अनुपस्थिति में उच्चतम न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को राष्ट्रपति पद की शपथ ग्रहण कराई जा सकती है. इसी परिप्रेक्ष्य में नई व्यवस्था के अंतर्गत यह सम्भव हो पाया कि राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति दोनों का पद रिक्त रहने की स्थिति में मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय को कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाया जा सकता है. इस व्यवस्था के पश्चात्त सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मुहम्मद हिदायतुल्लाह भारत के नए कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण कर सके. इस प्रकार 1969 को पारित अधिनियम 16 के अनुसार रविवार 20 जुलाई 1969 को प्रात:काल 10 बजे राष्ट्रपति भवन के अशोक कक्ष में इन्हें कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई गई. कार्यवाहक राष्ट्रपति बनने से पूर्व एम. हिदायतुल्लाह को सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद छोड़ना पड़ा था. तब उस पद पर जेसी शाह को नया कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था. इन्हीं कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय ने एम. हिदायतुल्लाह को कार्यवाहक राष्ट्रपति पद की शपथ दिलाई. वह 35 दिन तक कार्यवाहक राष्ट्रपति के पद पर रहे. 20 जुलाई 1969 के मध्याह्न से 24 अगस्त 1969 के मध्याह्न तक का समय इनके कार्यवाहक राष्ट्रपति वाला समय था. इस प्रकार अप्रत्याशित परिस्थिति के चलते इन्हें कार्यवाहक राष्ट्रपति का पदभार संभालना पड़ा.


वीवी गिरि 

देश के पांचवे राष्‍ट्रपति के तौर पर चुने जाने के बाद 24 अगस्‍त 1969 से 24 अगस्‍त 1974 तक देश के प्रथम नागरिक की भूमिका का सफलतापूर्व निर्वहन किया था.


फखरूद्दीन अली अहमद 

24 अगस्‍त 1974 से 11 फरवरी 1977 तक राष्‍ट्रपति पद काबिज रहे फखरुद्दीन अली अहमद की भी कार्यालय में ही मौत हो गई थी. उनके कार्यकाल को देश में इमरजेंसी (आपातकाल) के लिए याद किया जाता है.
भारत में 26 जून 1975 का दिन काले दिवस के रूप में जाना जाएगा. इसी दिन देश में संविधान प्रदत्त नागरिक अधिकारों को समाप्त कर 21 माह का आपातकाल घोषित कर दिया गया था. तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल लागू किया तो डंडे का राज चालू हो गया. आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा) की आवाज उठाने वालों को जेल में ठूंस दिया गया. इतना ही नहीं उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर करने के लिए पुलिस ने डंडे के बल से उनके व्यवसाय को ध्वस्त कर परिजनों का उत्पीड़न कर रहे थे. मीसा बंदी कहते हैं कि उस समय डंडे का राज चल रहा था, दशहत इतनी अधिक थी कि अन्याय व उत्पीड़न के विरोध में कोई कुछ नहीं बोलता था.


बीडी जट्टी 

राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद की असामयिक मौत के बाद देश के कार्यवाहक राष्‍ट्रपति के पद पर आसीन रहने वाले बीडी जट्टी का कार्यकाल भी विवादों से अछूता नहीं रहा है. दरअसल, अप्रैल 1977 में जब केंद्रीय गृह मंत्री चरण सिंह ने नौ राज्‍यों की असेंबली को भंग करने का विवादास्‍पद निर्णय लिया था तब इन्‍होंने अहम भूमिका निभाई थी. उस समय जट्टी ने केंद्रीय कैबिनेट की ओर से दिए गए इस सुझाव को स्‍वीकार करने से इंकार कर दिया था. उस समय उन्‍होंने यह दलील देते हुए केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया था कि राष्‍ट्रपति का काम सिर्फ कैबिनेट के सुझावों को स्‍वीकार करना ही नहीं है. राष्‍ट्रपति का पद राजनीतिकरण के लिए ही नहीं है बल्‍कि कानून के दायरे में रहते देश के संचालन का निष्‍पक्ष भूमिका निभाना भी है. आपने 11 फरवरी 1977 से 25 जुलाई 1977 तक कार्यवाहक राष्‍ट्रपति की भूमिका निभाई थी.



नीलम संजीव रेड्डी

एनएस रेड्डी आंध्र प्रदेश के पहले मुख्‍यमंत्री होने के साथ ही लोकसभा अध्‍यक्ष भी रह चुके हैं. उन्‍होंने 25 जुलाई 1977 से 25 जुलाई 1982 तक राष्‍ट्रपति की भी भूमिका अदा की थी.
नीलम संजीव रेड्डी भारत के ऐसे राष्ट्रपति थे जिन्हें राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार होते हुए प्रथम बार विफलता प्राप्त हुई और दूसरी बार उम्मीदवार बनाए जाने पर राष्ट्रपति निर्वाचित हुए. प्रथम बार इन्हें वीवी गिरि के कारण बहुत कम अंतर से हार स्वीकार करनी पड़ी थी. तब यह कांग्रेस द्वारा राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनाए गए थे और अप्रत्याशित रूप से हार गए. दूसरी बार गैर कांग्रेसियों ने इन्हें प्रत्याशी बनाया और यह विजयी हुए। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब वीवी गिरि को राष्ट्रपति चुनाव जीतने में सफलता प्रदान कराई, तब यह लगा था कि नीलम संजीव रेड्डी ने एक ऐसा मौक़ा गंवा दिया है, जो अब उनकी ज़िन्दगी में कभी नहीं आएगा. मगर समय ने नीलम संजीव रेड्डी जैसे हारे हुए योद्धा को विजयी योद्धा के रूप में परिवर्तित कर दिया. यह भारतीय राजनीति के ऐसे अध्याय बनकर सामने आए, जो अनिश्चितता का प्रतिनिधित्व करते नज़र आते हैं. संजीव रेड्डी भारत के एकमात्र ऐसे राष्ट्रपति थे, जो निर्विरोध निर्वाचित हुए.



ज्ञानी जैल सिंह

ज्ञानी जैल सिंह का कार्यकाल शुरू से अंत तक विवादों से घिरा हुआ था. उनके कार्यकाल में ही स्‍वर्ण मंदिर में छुपाए गए हथियार व खालिस्‍तानी आतंकियों को पकड़ने के लिए ऑपरेशन ब्‍लू स्‍टार चलाया गया था. इस कारण उन पर रबर स्‍टैंप राष्‍ट्रपति होने का भी आरोप लगाया गया था. इंदिरा गांधी की भी हत्‍या इन्‍हीं के कार्यकाल में की गई थी और उसके बाद सिखों का नरसंहार भी इन्‍हीं के समय में हुआ था. यही कारण है कि ज्ञानी जैल सिंह को अब तक का सबसे कमजोर राष्‍ट्रपति कहा जाता है. उस समय में प्रधानमंत्री राजीव गांधी से इनका विधेयकों को पारित न करने पर विवाद  भी हो गया था. फिर भी इनके कार्यकाल को ही राजीव गांधी सरकार के कुछ कठोर फैसलों को सफल न होने देने के लिए सराहा भी जाता है. आपका कार्यकाल 25 जुलाई 1982 से 25 जुलाई 1987 तक रहा था.


आर वेंकटरमन

स्‍वतंत्रता संग्राम में हिस्‍सा लेने के लिए वर्ष 1942 में जेल जाने वाले रामास्‍वामी वेंकटरमन ने 25 जुलाई 1987 से 25 जुलाई 1992 तक राष्‍ट्रपति का पदभार संभाला था. उन्‍होंने स्‍वतंत्र भारत के पहले वित्‍त मंत्री एवं औद्योगिक व बाद में रक्षा मंत्री का दारोमदार भी निभाया था.
उपराष्ट्रपति बनने के लगभग 25 माह बाद कांग्रेस को देश का राष्ट्रपति निर्वाचित करना था. ज्ञानी जैल सिंह का कार्यकाल समाप्त होने वाला था. इसी के तहत 15 जुलाई, 1987 को वह भारतीय गणराज्य के आठवें निर्वाचित राष्ट्रपति घोषित किये गए. 24 जुलाई, 1987 को इन्होंने उपराष्ट्रपति से त्यागपत्र दे दिया. 25 जुलाई, 1987 को मध्याह्न 12:15 पर संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश आरएस पाठक ने इन्हें राष्ट्रपति के पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई. इस समय वेंकटरमण ने सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा और काली शेरवानी धारण कर रखी थी. इन्होंने अंग्रेज़ी भाषा में शपथ ग्रहण की.
उपराष्ट्रपति बनने के लगभग 25 माह बाद कांग्रेस को देश का राष्ट्रपति निर्वाचित करना था. ज्ञानी जैल सिंह का कार्यकाल समाप्त होने वाला था। इसी के तहत 15 जुलाई, 1987 को वह भारतीय गणराज्य के आठवें निर्वाचित राष्ट्रपति घोषित किये गए. 24 जुलाई, 1987 को इन्होंने उपराष्ट्रपति से त्यागपत्र दे दिया। इन्होंने अंग्रेज़ी भाषा में शपथ ग्रहण किया था.



शंकर दयाल शर्मा 


25 जुलाई 1992 से 25 जुलाई 1997 तक राष्‍ट्रपति के पद पर रहने वाले शंकर दयाल शर्मा के कार्यकाल में ही अयोध्‍या में विवादित बाबरी मस्‍जिद का ढांचा गिराया गया था. उस जब ढांचा आरएसएस के कारसेवकों ने गिरा दिया था तब सामाजिक कार्यकर्ताओं ने तत्‍कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्‍हा राव  से मदद के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय में सम्‍पर्क किया. मगर वहां से उन्‍हें कोई मदद नहीं थी. इसके बाद उन सभी ने राष्‍ट्रपति भवन में जाकर मदद की गुहार लगाई. लेकिन, शंकर दयाल शर्मा उन सभी लोगों के सामने फूट-फूटकर रोने लगे. इसके बाद उन्‍होंने एक पत्र सबको दिखाया जिसमें लिखा गया था कि उत्‍तर प्रदेश सरकार को भंग करके जल्‍द से जल्‍द वहां राष्‍ट्रपति शासन लगाया जाए. मगर उनके इस पत्र पर कोई कदम नहीं उठाया गया था. उन्‍होंने तब स्‍वीकार किया था कि वे राष्‍ट्रपति होते हुए भी प्रधानमंत्री से मुलाकात नहीं कर पा रहे हैं. हालांकि, कुछ समय बाद यूपी के पूर्व मुख्‍यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने एक बयान दिया कि राष्‍ट्रपति को ढांचा गिराए जाने की सूचना पहले ही मिल गई थी. इस बयान को लेकर भी तब तत्‍कालीन राजनीति गर्मा गई थी. उपरोक्‍त घटनाक्रम पर कई किताबें लिखी जा चुकी हैं.



केआर नारायण

14 जुलाई, 1997 को हुए राष्ट्रपति चुनाव का नतीजा जब 17 जुलाई, 1997 को घोषित हुआ तो पता चला कि नारायणन को कुल वैध मतों का 95 प्रतिशत प्राप्त हुआ था. यह एकमात्र ऐसा राष्ट्रपति चुनाव था जो कि केन्द्र में अल्पमत सरकार के रहते हुए भी समाप्त हुआ. इसमें पूर्व चुनाव आयुक्त टीएन शेषन प्रतिद्वन्द्वी उम्मीदवार थे. शिवसेना के अतिरिक्त सभी दलों ने नारायणन के पक्ष में मतदान किया, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने यह कहते हुए इनका विरोध किया कि उन्हें भारतीय संस्कृति की जीत का आधार उनका दलित होना है. इससे पूर्व कोई भी दलित राष्ट्रपति नहीं बना था.
अपने राष्ट्रपति काल के दौरान आर नारायणन ने दो बार संसद को भंग करने का कार्य किया लेकिन ऐसा करने के पूर्व इन्होंने अपने अधिकार का उपयोग करते हुए राजनीतिक परिदृश्य को संचालित करने वाले लोगों से परामर्श भी किया था. तब यह नतीजा निकाला कि उन स्थितियों में कोई भी राजनीतिक दल बहुमत सिद्ध करने की स्थिति में नहीं था. यह स्थिति तब उत्पन्न हुई थी, जब कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने इन्द्रकुमार गुजराल सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और सरकार के बहुमत में होने का दावा दांव पर लग गया. इन्द्रकुमार गुजराल को 28 नवम्बर, 1997 तक सदन में अपने बहुमत का जादुई आंकड़ा साबित करना था. प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल बहुमत सिद्ध करने में असमर्थ थे, अत: उन्होंने राष्ट्रपति को परामर्श दिया कि लोकसभा भंग कर दी जाए. नारायणन ने भी परिस्थितियों की समीक्षा करते हुए निर्णय लिया कि कोई भी दल बहुमत द्वारा सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है. अत: गुजराल का परामर्श स्वीकार करते हुए उन्होंने लोकसभा भंग कर दी. इसके बाद हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी सकल पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई, जिसके पास में सबसे ज़्यादा सांसद थे. भाजपा के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को एनडीए का भी समर्थन प्राप्त था. अत: नारायणन ने वाजपेयी से कहा कि वह समर्थन करने वाली पार्टियों के समर्थन पत्र प्रदान करें, ताकि यह स्पष्ट हो जाए कि उनके पास सरकार बनाने के लायक़ बहुमत है. अटल बिहारी वाजपेयी समर्थन जुटाने में समर्थ थे और इस आधार पर उन्हें प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया गया. साथ ही यह शर्त भी थी कि 10 दिन में वाजपेयी अपना बहुमत सदन में साबित करें. 14 अप्रैल, 1999 को जयललिता ने राष्ट्रपति नारायणन को पत्र लिखा कि वह वाजपेयी सरकार से अपना समर्थन वापस ले रही हैं. तब नारायणन ने वाजपेयी को सदन में बहुमत साबित करने को कहा. 17 अप्रैल को वाजपेयी सदन में बहुमत साबित करने की स्थिति में नहीं थे. इस कारण वाजपेयी को हार का सामना करना पड़ा. आपका कार्यकाल 25 जुलाई 1997 से 25 जुलाई 2002 तक रहा था.



एपीजे अब्‍दुल कलाम 

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की जायदाद पर पिछले दिनों उनके संबंधियों के बीच विवाद की खबरें आई थी. लेकिन, एक रिपोर्ट के मुताबिक आम जिंदगी में बेहद सीधे और सरल रहे कलाम की जायदाद ना के बराबर थी. उनकी जायदाद में कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिसपर विवाद या दावेदारी की जा सके. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजेपी अब्दुल कलाम की जिंदगी में सिर्फ चंद जरुरत की चीजें ही थी और बहुत ज्यादा भौतिक चीजें उनके पास नहीं थी. उनके पास जो जरुरी चीजें थी उसके आधार पर यही कहा जा सकता है कि उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे जायदाद का नाम दिया जा सके.
रिपोर्ट के अनुसार डॉक्टर कलाम के पास कोई भी संपत्ति नहीं थी. उनके पास जो चीजें थी उसमें 2500 किताबें, एक रिस्टवॉच, छह शर्ट, चार पायजामा, तीन सूट और मोजे की कुछ जोड़ियां थी. हैरानी की बात तो यह है कि उनके पास फ्रीज तक नहीं था. डॉक्टर साहेब के पास टीवी, कार और एयर कंडीशनर तक भी नहीं था. पूर्व राष्ट्रपति कलाम का जीवन काफी सरल था. ना तो उन्होंने विलासितापूर्ण जीवन जीया और ना ही वह घोर अभाव में रहे. उनकी कमाई का मुख्य स्रोत वह रॉयल्टी था जो उनकी लिखी चार किताबों से उन्हें हासिल होती थी. उन्हें पेंशन भी मिलता था. आपका कार्यकाल 25 जुलाई 2002 से 25 जुलाई 2007 तक था.



प्रतिभा देवी सिंह पाटिल

भारत की पहली महिला राष्‍ट्रपति होने का गौरव हासिल करने वालीं प्रतिभा पाटिल राजस्‍थान की गवर्नर भीर चुकी थीं. उनका कार्यकाल 25 जुलाई 2007 से 25 जुलाई 2012 तक था.
राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अपने कार्यकाल में 23 देशों का दौरा किया, जिसमें 205 करोड़ रुपये खर्च हुए, जबकि इससे पहले एपीजे अब्दुल कलाम ने सात बार विदेश यात्रा की. हालांकि इस दौरान उन्होंने 17 देशों का दौरा किया. इन बातों की जानकारी पहले एक सूचना अधिकार की याचिका से सामने आई थी. अपनी विदेश यात्राओं को लेकर चौतरफा निंदा की शिकार होने वालीं प्रतिभा पाटिल प्रतिभा पाटिल के साथ सबसे पहला विवाद तब जु़ड़ा जब उन्होंने राजस्थान की एक सभा में कहा कि राजस्थान की महिलाओं को मुगलों से बचाने के लिए परदा प्रथा आरंभ हुई. इतिहासकारों ने कहा कि राष्ट्रपति पद के लिए दावेदार प्रतिभा का इतिहास ज्ञान शून्य है जबकि मुस्लिम लीग जैसे दलों ने भी इस बयान का विरोध किया. समाजवादी पार्टी ने कहा कि प्रतिभा पाटिल मुसलिम विरोधी विचारधारा रखती हैं. प्रतिभा दूसरे विवाद में तब घिरी जब उन्होंने एक धार्मिक संगठन की सभा में अपने गुरू की आत्मा के साथ कथित संवाद की बात कही. प्रतिभा के पति देवी सिंह शेखावत पर स्कूली शिक्षक को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करने का आरोप है. उन पर हत्यारोपी अपने भाई को बचाने के लिए अपनी राजनीतिक पहुंच का पूरा पूरा इस्तेमाल करने का भी आरोप है. उन पर चीनी मिल कर्ज में घोटाले, इंजीनियरिंग कालेज फंड में घपले और उनके परिवार पर भूखंड हड़पने के संगीन आरोप हैं. साथ ही, इन पर और भी कई आरोप लगते रहे हैं.



प्रणब मुखर्जी 

देश के राष्ट्रपति का नाम हाल ही में विवाद में घसीट लिया गया था. एसार के अधिकारियों के कुछ कथित इंटरनल ईमेल्स में इस बात का जिक्र किया गया है कि प्रणव मुखर्जी की ओर से इस बात का दबाव डाला गया था कि स्टील से लेकर ऑइल सेक्टर तक में सक्रिय इस ग्रुप में एक व्यक्ति को नौकरी दी जाए. ईमेल के एक दूसरे ट्रेल में दिखाया गया है कि एसार ने लंदन में अपने ग्रुप की एक कंपनी में इंटर्नशिप के लिए मुखर्जी की एक ग्रैंड डॉटर के लिए वीजा के इंतजाम में कितनी फुर्ती दिखाई थी. राष्ट्रपति भवन के प्रवक्ता ने इस मामले में कुछ भी कहने से मना कर दिया था, जबकि राष्ट्रपति भवन के अधिकारियों ने कहा कि इन ईमेल्स के स्रोत के बारे में उन्हें पक्के तौर पर कुछ नहीं मालूम है. एसार के एक प्रवक्ता ने कहा कि ग्रुप की कंपनियों में सभी नियुक्तियां कैंडिडेट्स की योग्यता के आधार पर होती हैं और जिन लोगों का जिक्र ईमेल्स में है, वे सभी संबंधित पदों के लिए पूरी तरह योग्य थे और उन्हें अपॉइंट करने का निर्णय किसी दबाव में नहीं लिया गया था. आपका कार्यकाल 25 जुलाई 2012 को शुरू हुआ था. कुशल राजनीतिज्ञ रह चुके प्रणब मुखर्जी के कार्यकाल में भी छोटे-छोटे विवादों का साया मंडराता रहा है.


नोट : सभी तस्‍वीरें गूगल इमेज से साभार हैं. 

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