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पिताजी ने कुछ रोज पहले खाने में दाल-भात (चावल), चौलाई का साग, भिंडी की भुजिया, पापड़, अमिया की चटनी, तिलौरी (सफेद तिल का फ्राई नमकीन स्वाद का छोटा लड्डू), रायता, सलाद और गाय का शुद्ध देसी घी परोसने को कहा. खाना बहुत स्वादिष्ट था. वैरायटी देखकर मैंने पिताजी से पूछा कि आखिर इतनी तगड़ी व्यवस्था करने का कारण क्या है. उन्होंने कहा, 'मेरे बचपन में एक बार माताजी (मेरी दादी) की तबीयत खराब हो गई थी. दादाजी ने उन्हें अपने गांव से करीब 40 किलोमीटर मोतिहारी स्थित एक अस्पताल में भर्ती करा दिया. इस बीच करीब दस दिन तक मैं बाबूजी के साथ मोतिहारी में रहा था.' फिर वे कुछ ठहरकर कहते हैं, 'उस दौरान हम लोग मोतिहारी रेलवे स्टेशन से करीब दो या 300 मीटर दूर स्थित एक दूबे भोजनालय में खाने जाते थे. उस भोजनाल की खासियत यह थी कि वहां जमीन पर लिपाई करने के बाद पीढ़ा पर बैठाकर केले के पत्ते पर यही सब खिलाया जाता था. एक बार में पांच से सात या अधिकतम 11 लोगों को ही खाना खिलाया जाता था. उसके बाद जमीन की फिर लिपाई की जाती थी. उसके बाद ही अगली पांति में लोगों को बिठाकर खाना परोसा जाता था.' अंत में कहते हैं, 'कई दिन से सोच रहा था कि वही खाना खाऊं. इसीलिए ये सब बनाने को कहा था क्योंकि अब वैसा स्वाद और आवभगत कहां मिलता है.'
बात तो सही है, होटल में पहले प्रेम और श्रद्धा के भाव से खिलाया जाता था. मगर अब नहीं. ऐसा ही एक और किस्सा आपको सुनाना चाहूंगा. कुछ रोज पहले जौनपुर के जंघई क्षेत्र में जाना हुआ था. वहां मैं पहली बार करीब 13 साल पहले पिताजी के साथ दीदी की शादी का रिश्ता लेकर गया था. उस समय जब पहली बार वहां पहुंचा था तब स्टेशन के बाहर आते ही एक छोटे से होटल में चाय-समोसे के लिए ठहरा था. वहां पिताजी ने घर से बनाकर लाया हुआ परांठा खाना शुरू किया. इस बीच होटल वाले चाय लेकर आए. मैं तो हमेशा ही चटोरा रहा हूं सो वहां पहुंचते ही कुल्लहड़ की चाय और एक रुपये के छोटे मगर तीखे समोसे खाने में जुट गया था. वहीं, इस बार जब उसी होटल में पहुंचा तो उसका नजारा बदला हुआ नजर आया था. अब वह खपरैल की छत वाला होटल नहीं था. अब वह एक शानदार होटल में तब्दील हो चुका है. वहां अब लकड़ी की बेंच पर मेहमानों को नहीं बिठाया जाता बल्कि महंगी कुर्सियों पर बिठाते हैं. मगर वह स्वाद नहीं मिला. होटल की हर दीवार पर चस्पा संदेश था बाहर से लाई चीजों को यहां खाना मना है. मुझे तेरह साल पहले आने पर पापा के परांठे याद आ गये. वास्तव में कितना बदलते जा रहे हैं हम और हमारा समाज.
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