क्‍यों मनाते हैं लखनऊ में बड़ा मंगल?

लखनऊ में ज्‍येष्‍ठ माह के हर मंगलवार को जगह-जगह भंडारे और प्‍याऊ की व्‍यवस्‍था की जाती है. इन दिनों कोई भूखा नहीं सोता. अच्‍छा है. मगर क्‍या आप जानते हैं कि इसकी शुरुआत कैसे हुई थी?
पुराने लखनवी जो ग्रामीण क्षेत्र के हैं, उनसे मैंने राजधानी में आयोजित होने वाले इस पुण्‍य प्रतापी आयोजन की शुरुआत के बारे में पूछा. जवाब मिला, लखनऊ के ग्रामीण क्षेत्रों में बरसों बरस पहले से हर साल नया अनाज आने पर ज्‍येष्‍ठ माह के हर मंगलवार को किसानों की ओर से गुर-चना बांटा जाता था. मगर इस गुर-चना में चना नहीं होता था. इसमें किसान अपनी खेत की नयी उपज की गेहूं को भुनवाता था. फिर उस भुने गेहूं में गुड़ मिसवा (मिला) दिया जाता था. इसके बाद घर के बच्‍चे उसे अपने गले में एक कपड़ा बांधकर लटका लेते थे फिर घरों से निकल पड़ते थे. राह चलते जो दिख जाए उसे गुर-चना दिया जाता था. यानी ये तो हो गया बड़ा मंगलवार पर पेट भरने का इतिहास.
अब जानिये इसके आगे की कहानी. फिर हुआ यूं कि ग्रामीण क्षेत्रों की इस धन्‍य परम्‍परा से राजधानी के शहरी क्षेत्रों में रहने वाले पंजाबी और सिंधी परिचित हुए. उन्‍होंने इन दिनों शर्बत बांटने की परम्‍परा शुरू कर दी. धीरे-धीरे बड़ा मंगल मनाने का क्रेज बढ़ता गया. इसमें पूर्वांचलियों और बिहारियों ने भी बढ़-चढ़कर भाग लेना शुरू कर दिया. अब चूंकि पूरबियों को ठोस खाना खाना और खिलाना पसंद है, इसीलिए अब चारों ओर पूड़ी-सब्‍जी का बोलबाला हो गया है. है न रोचक, हमारी राजधानी में बड़ा मंगल मनाने का इतिहास.
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अंत में बड़ा मंगल से जुड़ी कुछ खास बातें.
1. कुछ लोग भंडारा कराते हैं 100 किलोग्राम आलू का मगर हांकते समय बताएंगे कि 10 कुंतल के ऊपर लग गया है. फिर यह भी कह देंगे कि भगवान के काम में गुणा-भाग काहे का.
2. भंडारा करवाता कोई और है मगर उसमें 101 रुपया देने के बाद लोग ऐसे प्रचारित करते हैं कि सारा बोझ उन्‍होंने ही अकेले अपने कंधे पर उठा लिया था.
3. कइयों को मैंने देखा है कि भंडारा कराते समय यदि कोई अमीर दिख जाएगा तो बड़े प्रेम से खिलाएंगे लेकिन रिक्‍शा चलाने वाले या भिखारियों को डंडा हांक कर लाइन लगवाते हैं.
(उपरोक्‍त तीनों प्रकार के लोगों से विनम्र निवेदन है कि वे भंडारा न करें बल्‍कि घूम-घूमकर प्रसाद भक्षण करें. हनुमानजी से न सही मगर उनके गदा से तो डरें.)

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