शामियाने में किसी ने भी कदम क्यों नहीं रखा?

गांव कनेक्‍शन अखबार की संपादकीय में मिला स्‍थान।।।। 
जहन में दबी ये यादें हैं मई, 2014 की। मेरी दादी का देहावसान हो गया था। उन्होंने अपनी जिंदगी के अंतिम पल बिहार में स्थित मेरे गांव यानी अपने ससुराल में बिताना पसंद किया था। लखनऊ में रह रहे उनके बड़े बेटे यानी मेरे पिताजी को जैसे ही उनकी मौत की खबर मिली, वे गांव को चल पड़े। मगर मैं छुट्टी न मिल पाने कारण उनकी तेरही में ही शामिल हो सका था। उस दौरान मैंने देखा कि जाति में ऊंच-नीच की दीवार ने बिहार का माहौल कैसा बना रखा है. 

चूंकि, मैं शुरुआत से ही लखनऊ में रहा था, इसलिए मुझे बिहार में भोज या श्राद्ध के दौरान निभाए जाने वाले जातिवादी भेदभाव के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. नतीजतन, मैं शूद्र जाति के बच्चों और बड़ों को श्राद्ध के भोज के लिए बुलाता रहा और उन्होंने कातर नजरों से मुझे देखते हुए कथित कुलिष्ठों के लिए बनाए गए शामियाने से दूरी बनाना ज्यादा उचित समझा। 

बिहार में मोतिहारी जिले के अंतर्गत आने वाले अरेराज क्षेत्र के सरेयां गांव में ही हमारे परिवार की नींव है। हम सभी दादी के निधन के बाद पटिदारों को भोज कराने के लिए एकत्र हुए थे। इसी बीच मुझे बिहारवासियों की जिंदगी में जाति के कोढ़ की पीड़ा को समझने का अहसास हुआ। मैंने ज्यों ही भूख से बिलखते बच्चों को उच्च जाति के लोगों के लिए बनाए गए शामियाने में आकर खाने का इशारा किया, त्यों ही पंडाल में मौजूद सभी ब्राह्मण और ठाकुरों का मुंह बन गया। उन्हें लगा कि अब मैं लखनऊ का हूं और अपनी हद से बाहर जाकर उनके भोज के स्वाद को चौपट करने की फिराक में हूं। खैर, इस बात को सभी निम्न जाति के बच्चों तक को पता था कि यदि वे पंडाल के अंदर कदम भी रखेंगे तो हंगामा हो जाएगा। इसीलिए सभी अपनी जगह पर कांठ मारे खड़े रहे।

फिर क्या था, हमारी पटिदारी के वरिष्ठों ने कहा कि बेटा यहां सभी जाति के लोग एक ही पांति में नहीं खाते। बेहतर है कि इन्हें या तो हम लोगों के खाने के बाद बुलाना या फिर दूर कहीं खुले में बैठा दो ताकि तुम्हारा भी मन रह जाए। लेकिन, इन्हें इस शामियाने में मत बुलाओ। इतना सुनते ही मुझे इस बात का अहसास हो गया कि बिहार में भले ही सड़कें डामर की बन गई हों। भले ही कई जगहों पर बाढ़ से निपटने के लिए कारगर व्यवस्था अपना ली गई हो। भले ही कई सुदूर गांवों में बिजली की चकाचौंध मिल गई हो। इसके बाद भी वहां की जिंदगी में जातिवादी का दंश गहरे तक धंसा हुआ है। आलम यह है कि वहां के दलितों में से किसी ने इस प्रथा के खिलाफ बोलना उचित नहीं समझा। सभी ने श्राद्ध भोज के लिए कतार में खड़े होकर इंतजार करना ज्यादा मुनासिब समझा। किसी को भी इसमें स्वाभिमान पर हमला नहीं महसूस हुआ। सभी उलटा मुझसे कहने लगे कि बाबूसाब और बाबाजी लोग पहले खा लें, हम लोग तो बाद में ही खाएंगे। इसके बाद मैंने खुद को उस भोज से दूर ही रखा। मेरा मन खट्टा हो गया था। मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा बिहार की जिंदगी का यह रूप। मन में एक सवाल आज भी टीस देता है कि उन लोगों को इसमें अपमान का अहसास क्यों न हुआ? वे इस व्यवहार को ही अपनी नियती क्यों समझते हैं? क्यों इस तरह की प्रथा का अंत नहीं हो पाता? आखिर, विरोध जताते हुए शामियाने के अंदर कोई आया क्यों नहीं?

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