ऐसी मुझको मदिरा दो
न हो मुझको कोई रोष
न दे मुझको कोई दोष
बढ़ा किये जा मेरा कोष
ऐसी मुझको मदिरा दो।
न कभी मैं लडख़ड़ाऊं
सीधी राह चला जाऊं
सदा सम्मान मैं पाऊं
ऐसी मुझको मदिरा दो।
न हो जाति का कोई मान
दुर्बल को दिया दूं दान
बना रहे आंगन का मान
ऐसी मुझको मदिरा दो।
आंखें रहीं चढ़ी सदा
कभी न हो कम-ज्यादा
कभी घटे न मर्यादा
ऐसी मुझको मदिरा दो।
वाणी में रहे महक-महक
पिया करूं मैं चहक-चहक
गर्मी जिसमें दहक-दहक
ऐसी मुझको मदिरा दो।
फूल के रंग से रंगा हुआ
कामाग्नि में पका हुआ
तेरी पलकों से छना हुआ
ऐसी मुझको मदिरा दो।
(19/04/2006 को मैंने लिखी थी यह कविता)
न हो मुझको कोई रोष
न दे मुझको कोई दोष
बढ़ा किये जा मेरा कोष
ऐसी मुझको मदिरा दो।
न कभी मैं लडख़ड़ाऊं
सीधी राह चला जाऊं
सदा सम्मान मैं पाऊं
ऐसी मुझको मदिरा दो।
न हो जाति का कोई मान
दुर्बल को दिया दूं दान
बना रहे आंगन का मान
ऐसी मुझको मदिरा दो।
आंखें रहीं चढ़ी सदा
कभी न हो कम-ज्यादा
कभी घटे न मर्यादा
ऐसी मुझको मदिरा दो।
वाणी में रहे महक-महक
पिया करूं मैं चहक-चहक
गर्मी जिसमें दहक-दहक
ऐसी मुझको मदिरा दो।
फूल के रंग से रंगा हुआ
कामाग्नि में पका हुआ
तेरी पलकों से छना हुआ
ऐसी मुझको मदिरा दो।
(19/04/2006 को मैंने लिखी थी यह कविता)
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