
अखबारी आदमी की बीमारी होती है कि वह अखबार को सिरसिरे निगाह से देखते हुए। आस-पास के लोगों का खबरों पर मन जांचने लगता है। सब कुछ साधारण सा था। कुछ भी तो नहीं बदला था। हमेशा की तरह लोगों ने दो-दो, एक-एक पन्नों को मांगते हुए उस ताजे अखबार का चीरहरण भी कर दिया था। इसी बीच किसी की नजर अखबार की एक खबार पर गई। खबर थी 'केंद्र सरकार के खिलाफ देशव्यापी धरने की' सभी ने इस धरने के आयोजक की तारीफ में कसीदे काढऩा और सरकार के खिलाफ गुस्सा उगलना शुरू कर दिया। कोई उस अनाम आयोजक को शेर तो कोई मर्द की संज्ञा दे रहा था। वहीं, सरकार विरोधियों ने पौ फटते ही पूरी संसद को गाली देना शुरू कर दिया। मैं सभी की बातों को सुन रहा था। अपनी मर्जी को मैंने किसी के सामने नहीं रखा। वरन यह जरूर किया की जैसे ही कोई मुझसे मुखातिब होता मैं उसकी बातों में हामी भर देता। सभी ने चाय की चुस्कियों का आनंद लिया और जमकर अपनी भड़ांस निकाली। अखबार के पन्ने पहले लोगों के दोनों हाथों में थे। कुछ देर बाद अंगुलियों की संख्या कम होती गई और अंत में वह दुकान में लगी टुटही बेंच पर बेतरतीब तरीके से सजा दिए गए। चाय भी खत्म होने लगी। लोग अपने-अपने रास्ते को होने लगे। सभी ने चाय का दाम चुकाने के साथ ही दिनभर के कामों की चर्चा भी आपस में कर ली। देशव्यापी धरना अखबार के माध्यम से उनकी आंखों में झांक रहा था। सभी ने अखबार को पंगू सरीखा करते हुए अपने रास्ते होना ज्यादा उचित समझा और धरने का हिस्सा बनने की बात पर बस इतना कहा कि अमा इतना वक्त कहां है। हां, लेकिन अनाम आयोजक की तारीफ में कोई कमी नहीं थी। हो भी क्यों न, वह उनके देश की रक्षा जो कर रहा था। वह संसद में उनके हाथों चुने गए मौजूद भ्रष्टï नेताओं से। अखबार कभी खुद पर कभी देश के ऐसे होनहारों पर हंस रहा था। वह मुझ पर भी हंस रहा था कि तुम ऐसे ही लोगों को जगाने के लिए खबरनवीस बने थे। अखबार लोकतंत्र का आईना होता है। मगर वह हम सबको आईना दिखा रहा था। लोकतंत्र का आईना देश की दुर्गति पर मुस्कुरा रहा था। वह मुझको देशवासियों का दिल दिखा रहा था। अखबार एक देशभक्त की आस में अपनी बांहें फैला रहा था।
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