असमय ही वह बन गया 'छोटू'

शाम होने को थी या यह कहना ज्यादा सही होगा कि शाम हो चुकी थी। मेरी आँखें नींद को विदा करने को तैयार नहीं थी। नींद मुझसे विदा मांग रही थी और मैं उसे खुद में समेटने की जिद में बाहर की शाम को अनदेखा करने पर तुला हुआ था। इसी बीच मां की आवाज आई, शाम के वक्त नहीं सोते। गुदले की बेला में सोने से उम्र का क्षय होता है। मगर मैं साप्ताहिक अवकाश को पूरी तरह नींद की आगोश में लुटाना चाहता था। खैर, अब सोना ज्यादा ठीक नहीं था। मां की आवाज तेज होती जा रही थी। दरअसल, वह मेरे कमरे के पास तक आ गई थीं। उन्हें कमरे में दाखिल होता देख मैंने बड़े ही अलसाये हुए अंदाज में कहा, 'अच्छा-अच्छा। उठ गया हूं। परेशान न हो। सप्ताह में एक दिन सोने को मिलता है। उसमें भी उम्र बढ़ाने के तरीके सुझा रही हैं आप।' मां को हंसी आ गई। उन्होंने मेरे शब्दों में ताने के तीर को अनसुना करते हुए कहा कि ठीक है, मेहमान खाने में आ जाओ। चाय ठंडी हो रही है। मैंने भी निद्रा देवी को विदा करते हुए बिस्तर को सलाम कर खड़ा होना ज्यादा उचित समझा।
मैं हाथ-मुंह धोकर मेहमान खाने में चला गया। वहां चाय का प्याला मेरे इंतजार में ठंडा हो रहा था। मैंने भी उसे बड़ी सुस्त चुस्की के साथ पीना शुरू कर दिया। कुछ ही देर बाद मेरी सुस्त चुस्कियां चुस्त चुस्कियों में तेज हो गईं। चाय खत्म होने के साथ ही मैंने फैसला कर लिया कि अब मुझे शाम का मजा लेना चाहिए। घर के पास वाले चौराहे पर जाकर मुआयना करना चाहिए। दरअसल, अखबार की नौकरी करते हुए मुझे शाम और सुबह का आनंद नहीं मिल पाता है। इसीलिए छुट्टी के दिन मैं शाम को पूरी तरह से आंखों में बसा लेने की कोशिश करता हूं ताकि एक सप्ताह बाद आने वाले अवकाश के दिन तक शाम का नजारा मेरी यादों में बस सके। इसी फैसले के साथ मैं अपनी बाइक को तेज रफ्तार देते हुए तुरंत ही चौराहे पहुंच गया। आज की शाम कुछ अलग सी लग रही थी। अंदर का पत्रकार बार-बार अंगड़ाई लेकर लिखने के लिए कुछ मसाला तलाशने को बेचैन कर रहा था।
इसी बीच मेरी नजर एक बच्चे पर पड़ी। वह अंडे के ठेले पर प्लेट धो रहा था। उसके चेहरे पर बचपन का कोई भाव नहीं दिख रहा था। मुझे न जाने उसके चेहरे पर फिर भी कुछ खिंचाव सा नजर आया। मैं टकटकी लगाकर उसे देखने लगा। कुछ क्षण के बाद ऐसा लगने लगा कि मैं उस लड़के को, जिसकी उम्र तकरीबन 12-13 साल की होगी, को जानता हूं। दिमाग पर काफी जोर देने पर भी उसका परिचय याद नहीं आ रहा था। फिर भी मैं उस बच्चे के चेहरे पर से नजर नहीं हटा पा रहा था। खैर, दिमाग पर जोर लगाने से बेहतर मैंने यह समझा कि उस बच्चे के ठेले पर जाकर उबले अंडे ही खा आऊं। फिर, मैंने अपनी बाइक को किनारे खड़ी करके उस बच्चे से दो उबले अंडे धनिया की चटनी और प्याज के साथ देने को कहा। इस बार वह बच्चा मुझे देखते ही थोड़ा मुस्कुराया। शायद, वह भी मुझे पहचाना हुआ समझ रहा था। मगर मैंने उसकी मुस्कान पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और जेब में से मोबाइल निकालकर अपने एक अजीज से बात करने लगा।
मगर दिमाग के एक कोने में अब भी उस बच्चे के प्रति आकर्षण बनने का सवाल जोर मार रहा था। खैर, इसी बीच वह प्लेट में अंडे सजाकर ले आया। उसके चेहरे पर अब भी मुस्कान रह-रहकर झलक रही थी। मैंने उससे पूछा तुम्हें हंसी क्यों आ रही है? क्या तुम मुझे जानते हो? इस सवाल पर उसने धीरे से कहा, हां। मैंने तपाक से कहा, मुझे भी लग रहा है कि मैं तुम्हें जानता हूं। मगर याद नहीं कर पा रहा हूं कि तुम्हें मैंने कहां देखा है। इस पर उसने कहा कि आप नीरज सर ही हैं न? मैंने कहा हां, क्या मैंने तुमको कभी पढ़ाया है। इसके कुछ ही पल के बाद मुझे याद आ गया कि वह बच्चा तो एक समय में जब मैं ग्रेजुएशन कर रहा था, तब मुझसे एक स्कूल में पढ़ता था। उसकी इंग्लिश बहुत कमजोर थी। इस वजह से मैं उसे कभी-कभी इंग्लिश को याद करने के टिप्स भी दिया करता था। मगर जल्द ही मुझे एक बात और कौंध गई कि यह तो बहुत ही हंसता-खेलता था। इसकी हंसी से तंग आकर एक बार मैंने इसे डंडे भी मारे थे। मगर अब यह इतना गंभीर क्यों हो गया है और पढऩे-खेलने की इस उम्र में इस ठेले पर क्या कर रहा है, जबकि वह अकसर कहता था कि पापा की ख्वाहिश है कि वह बड़ा होकर कोई सरकारी अधिकारी बने। मगर .....अब। मैं उससे पूछ बैठा। तुम इस उम्र में पढ़ाई करने का समय छोड़कर ठेले पर क्या कर रहे हो। वह मायुस हो गया। उसने बताया कि पिछले साल उसके पिता इसी जगह पर ठेला लगाते समय एक ट्रक की तेज रफ्तार के शिकार हो गए थे। कुछ दिन तो पिता जी की कुछ जमा पूंजी से घर चलता रहा। मगर एक समय के बाद घर पर लेनदारों का तांता लगने लगा। मां को परेशान देख मैंने अपनी किताबों को घर की टांड़ पर फेंक दिया और पिता जी की वसीयत में मिले इस ठेले को सजाकर घर की जिम्मेदारी उठा ली है। अब मैं स्कूल नहीं जाता। न जाने क्यों अब हंसी भी नहीं आती। शाम ठेले पर और दिन मां के साथ सब्जी का ठेला लगाने के साथ व सुबह बच्चों को स्कूल जाते हुए देखते कट रहा है। मैं स्तब्ध था। कुछ समझ नहीं पा रहा था कि इस बच्चे को शाबाशी दूं या देश की शिक्षा व्यवस्था और एनजीओ की दुकानों को कोसूं, जो ऐसे ही न जाने कितने विशाल यादव को असमय ही 'छोटू' कहलाने के लिए जिंदगी की मझधार में छोड़ देते हैं। इस कोरे वायदे के साथ कि जल्द ही शिक्षा व्यवस्था को पूर्णतया घर-घर पहुंचाया जाएगा। न जाने अचानक ही अंडे का स्वाद कड़वा सा लगने लगा। मैंने रुपया दिया और वहां से रवाना हो लिया, मगर इस कहानी को लिखने के सिवाए मैं उस बच्चे के लिए कुछ न कर सका। मैं सवालों में था। आज की शाम सच में कई सवालों के साथ आंखों में बस गई। रात हो चली थी। घर पर सभी मेरा इंतजार कर रहे थे। मगर न जाने अब मेरे चेहरे की मुस्कान कहीं गुम हो चुकी थी। शाम को रात ने अपने आगोश में ले लिया था.....।

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