अपनी पहचान की जंग



हम सभी जन्‍म से लेकर अपनी मृत्‍यु तक किसी मुकाम की तलाश में भागते रहते हैं। बचपन में बेहतरीन छात्र बनने की कोशिश, थोडा बडे हुए तो अपने दोस्तों के बीच में अच्‍छे खिलाडी बनने की चाह। अच्‍छा लगता है जब आप अपने किसी दोस्‍त की गेंद पर छक्‍के और चौकों की बरसात करते हैं या ऐसे ही किसी और आउटडोर या इनडोर गेम में दोस्‍त को हराने का चस्‍का आपको सफलता की सीढी के नजदीक ले जाता है। उम्र बढती जाती है और लक्ष्‍य बदलता जाता है। धीरे-धीरे करियर के चुनाव का पडाव आता है और हम उसमें भी अपने आस-पास की भेंड चाल से इतर किसी नए रास्‍ते पर चलने की योजना बनाते हैं। ये सारे गुण उन्‍हीं के होते हैं जो कुछ कर दिखाना चाहते हैं। ये सारी कवायद सिर्फ और सिर्फ अपनी पहचान बनाने की होती है। यकीन मानो दोस्‍त सारी कोशिश अपनी पहचान बनाने की है।



करियर के चुनाव के बाद उस रास्‍ते पर चलते रहने के बाद हमारी पहचान हमारे संस्‍थान में हमारे पद और हमारे काम के आधार पर तय कर दी जाती है। जाहिर है हमारी पहचान हमारे संस्‍थान के नाम के साथ सिमट जाती है। क्‍या इसे हम अपनी कामयाबी और पहचान का मापदंड कहेंगे। मेरे बहुतेरे दोस्‍तों का कहना है कि नहीं, जिंदगी तो वही है जिसमें हमारी पहचान हमारी अपनी हो। हम किसी संस्‍थान के नाम से न जाने जाएं। हमारी पहचान यही हो कि हम जिस संस्‍थान में रहें वह हमारे नाम से जाना जाए। पहली बार इस बात को सुनने के बाद बडबोलेपन का एहसास होता है। लेकिन, बाद में इस बात पर गौर करें तो काफी हद तक ये बात सही लगती है। पहचान तो यही होनी चाहिए कि हम जहां जाएं वह जगह हमारे में नाम से जानी जाए। हां, इस बात को साबित करने के लिए अथक परिश्रम के अलावा और कोई रास्‍ता नहीं है। कुछ भी दुनिया की इस भीड में अपने नाम का सिक्‍का जमाना किसी जंग से कम नहीं है। अंत में फिर वही बात कहूंगा कि सारी कवायद नाम बनाने की है। अपनी पहचान बनाने की है। बशर्ते उस नाम पर कभी शर्मिंदा न होना पडे। उसे सुनते ही गर्व हो। उसे सुनकर किसी के मन में भय न पनपे। सारी कवायद नाम की ही है। :-)

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सही कहा कि इसके लिए परिश्रम के अलावा कोई चारा नहीं है।