सकारात्‍मक सोच और टीनएज


यूं ही सोच रहा था कि इंसान अपने किस उम्र में सबसे ज्‍यादा सकारात्‍मक होता है। जिज्ञासा शांत करने के लिए उम्र के हर पडाव के बारे में सोचता चला गया। काफी माथा-पच्‍ची की तो लगा कि टीनएज की अवस्‍था ही वह अवस्‍था है जिसमें सकारात्‍मक सोच हम पर हावी रहती है। तभी तो जिंदगी की दिशा हम उसी समय तय कर लेते हैं। इस अवस्‍था में कुछ भी नामुमकिन नहीं लगता। सब कुछ आसान सा लगता है। शायद बॉलीवुड भी हमें यही समझाना चाहता है तभी तो गाना बना, दिल तो बच्‍चा है जी। आइए जानते हैं कि किस तरह मैं अपने इस निर्णय तक पहुंच सका.....

सकारात्‍मक सोच वाली उम्र की तलाश में मेरी नजर सबसे पहले बचपन पर पडी। इस अवस्‍था में सकारात्‍मकता और नकारात्‍मकता में विभेद करने की शक्ति ही नजर नहीं आई, क्‍योंकि इस अवस्‍था में हमें लक्ष्‍य खुद नजर नहीं आता बल्कि हमें हमारा लक्ष्‍य मां-बाप द्वारा दिखाया जाता है। हम वही करते हैं, जिसकी हमें आजादी होती है या जिसकी राह दिखाई जाती है। ऐसे में इस अवस्‍था से ऐसी सकारात्‍मक सोच की उम्‍मीद करना बेकार है। इसलिए इस विकल्‍प पर मैं ज्‍यादा देर तक नहीं रुक सका। आगे बढा तो नजर ठहरी जवानी पर। इस अवस्‍था को जिम्‍मेदारियों की पहचान का काल कहें तो बेहतर है। इस उम्र में हमें कदम दर कदम समस्‍याएं घेरती हैं, हमें इसी बीच मस्‍ती सूझती है और इंसान सही-गलत के चुनाव में भी पड जाता है। जो सही को चुना तो सफल और जो चूके तो समझो हुए चौपट। इसलिए इस अवस्‍था में हर चीज सकारात्‍मक लगता है, ऐसा कहना सही नहीं होगा।

इस विकल्‍प के बाद अगला पडाव दिखा बुढापा। इस अवस्‍था में मुझे सिवाए परिपक्‍वता और जिम्‍मेदारियों की इतिश्री से ज्‍यादा कुछ समझ में नहीं आया। मेरा सवाल अब भी मुझसे जवाब की मांग कर रहा था। मैं सोचता चला गया और अंत में विकल्‍प आया टीनएज। अचानक ही लगने लगा कि इसी उम्र में ही तो सपने हमेशा सकारात्‍मक लगते हैं। जी हां, उम्र की इसी अवस्‍था में हमें सभी सपने हकीकत सरीखे मालूम पडते हैं। कुछ भी कठिन नहीं लगता। बस एक धुन होती है सपनों को जीने की। और हम उसे जी जाते हैं। करियर का मनचाहा चुनाव कर भावी भविष्‍य की उधेड-बुन शुरू कर देते हैं। लेकिन, समय के साथ इंसान अपने टीनएज को खो बैठता है। उसे हर चीज नामुमकिन सी लगने लगती हैं। इसीलिए बेहतर है कि हम अपनी सोच को सकारात्‍मक बनाए रखने के लिए हमेशा उस टीनएज को जिंदा रखें। हालांकि, समय की मांग को देखते हुए परिपक्‍वता को भी अपनाते रहना चाहिए। क्‍योंकि, उस इंसान का कोई अस्तित्‍व नहीं है जो समय की आग में तपकर परिपक्‍व नहीं होना चाहता। इसलिए दोस्‍तों आप सबसे मैं यही कहूंगा कि उम्र के किसी भी पडाव में अपने उस टीनएज को जिंदा रखने की कोशिश कीजिए। विश्‍वास न हो तो जरा अपनी उस अवस्‍था के दिनों को याद करके देखिए। सब रंगीन सा लगने लगेगा। मंजिल को पाने की ख्‍वाहिश भी दोगुनी रफ्तार में दौड पडेगी।


इस शीर्षक के तहत मैं अभी और लेख लिखूंगा।।।।

Comments

Kailash Sharma said…
बहुत सार्थक आलेख.. अपने अंदर का टीनएज जगाये रखना बहुत आवश्यक है..
mazha said…
can u explain in english?