यादों के झरोखों में मलाल का माहौल


खो गए हैं मौसम। बदल गया है माहौल। गुम हो गए हैं घरेलू पक्षी। बदल गया है रात का हाल। नहीं दिखते रात में टिमटिमाते तारे। इतना तीव्र और अनचाहा परिवर्तन हमारे कारण हुआ। प्रकृति हमसे सारी चीजें एक-एक करके वापिस लेती जा रही है। हम फिर भी मौन हैं। कुछ न करने की कसम खाए हुए हैं। सिर्फ कुछ यादों को सहेज के रखे हुए हैं। चार लोगों के बीच में उनकी चर्चा करते हैं कि भाई गौरैया नहीं दिखती, बचपन में खिचडी के दिन ठंड के कारण अम्‍मा से अक्‍सर नहाने के लिए डांट खाते थे। सभी एक साथ हामी भरते हैं। हां, खत्‍म हो गया वह माहौल। इसी के साथ जिम्‍मेदारियों की पूर्ति करते हुए हम अपनी अपने-अपने घर को रुख‍स्‍त हो जाते हैं।

सच कहूं तो मैं इन सबको बहुत याद करता हूं। बचपन में अचानक ही घर के अंदर गौरैया चहचहाते हुए घुस आती थी। हम भाई-बहन उसे घर से निकालने की कोशिश में उछल-कूद करते थे। जी में आता था कि पकडकर पाल लें उसे लेकिन पीछे से दादी या मां कहती थीं। उसे उसके रास्‍ते जाने दो। बेचारी डरी हुई है। हम मन मसोस कर रह जाते थे। न चाहते हुए भी घर का दरवाजा खोलकर उसे उधर की ओर भगाने की कोशिश करते थे। फिर हल्‍की सी हंसी के साथ उसे विदाई दे देते थे। गौरैया की उन यादों को हम सभी ने कभी जीया होगा।

आइए अब बात करते हैं, मौसम के बदल चुके मिजाज की। पहले सभी मौसमों की एक निश्चित तिथि हुआ करती थी। ठंड का मतलब ठंड, गर्मी का मतलब गर्मी और बरसात का मतलब होता जोरदार बरसात। हर मौसम की अलग-अलग तासीर और अलग-अलग मिठास। सभी का अपना मजा था। खिचडी के रोज, सुबह-सुबह उठते ही ठंड का कोपभाजन झेलना होता था। मां-पापा कहते थे, जल्‍दी से नहा ले मलिछ। आज पूजा का दिन है और हम कहते थे। हे भगवान, इतनी जोर की हवा चल रही है। उसमें भी दान-पूण्‍य। मर गए आज तो। कई बार तो उस दिन बारिश भी होती थी। बरसात का मौसम आते ही काले बादलों की बाढ सी आ जाती थी। छत पर बैठते हुए ठंडी हवा के तेज झोंकों में बाल उडते देखना और उसे महसूस करने का अपना ही मजा होता था। बारिश अब भी होती है लेकिन उसकी समयसीमा घट गई है। गरमी का मिजाज, अब कुछ ज्‍यादा गरमा गया है। इसकी समयसीमा बढती ही जा रही है। सभी मौसमों ने अपनी तारीखें बदल दी हैं। कोई आता है तो जाता नहीं और किसी के आने-जाने का एहसास ही नहीं होता। दिन-ब-दिन मौसम अपने मिजाज को खोते जा रहे हैं। हम फिर भी मौन हैं।

अब आइए रात की चर्चा करते हैं। रात में गर्दन को उपर उठाते ही ध्रूव तारा और सप्‍तऋ‍िषी के साथ आकाशगंगा की चमक को निहारने का मजा ही कुछ और होता था। तारों को देखकर हम भाई-बहन त्रिभुज और चतुर्भुज को तलाशा करते थे। एक से बढकर एक नक्‍शे देखते थे। जगमगाती थी हर रात। टिमटिमाते रहते थे तारे। मगर अब गाडी के धूंएं ने सबको ढांप लिया है। रात के कालेपन की खूबसूरती खो गई है। यूं लगता है जैसे इसका यौवन किसी ने चुरा लिया है। वो चोर कोई और नहीं, हम हैं।

हमने ही बदला है मौसम के मिजाज को। गौरैया सरीखी अन्‍य प्रजातियों की चिडियाओं को मार डाला हमने। कारण, प्रदूषण है। इस गंदगी के जनक हैं हम। अब सिवाए पछताने के हम कुछ नहीं कर सकते। हम सिर्फ उन पलों को याद कर स‍कते हैं। कवियों की कल्‍पनाओं में उन्‍हें पढकर वाह-वाह कर सकते हैं। हमने ही बदला है मौसम का मिजाज। प्रकृति ने अच्‍छा किया जो इन यादों को हमसे छीन लिया। आप तो उन्‍हें भूल गए हैं। मैं उन्‍हें भूल नहीं पा रहा हूं, आप ही बताएं मैं क्‍या करूं??.....

Comments

Creative Manch said…
चाहे चहचहाती हुयी गौरैया हो या कांव-कांव करता हुआ कौवा या फिर रंग-बिरंगी तितलियाँ .... ये सब हमारे परिवेश का हिस्सा थे ,,, सब न जाने कहाँ विलुप्त होते जा रहे हैं ,,दोषी हम ही हैं ..

आपने बहुत अपनेपन से लिखा है
बहुत अच्छा लगा
सुन्दर पोस्ट
बधाई
आभार