खिडकी की ओर से एक आहट हुई। किसी ने कहा, ओ साथी रे तेरे....। मैं लेटा हुआ था। गहरी नींद में था मगर जाग रहा था। झटके से उठ बैठा। पिता जी को देखा। बगल के कमरे में भइया को पढते देखा।
फिर सभी ने खिडकी की ओर देखा। फिर मुझे देखा। मैं पानी पीने के बहाने कीचन में चला गया। जब
वापस कमरे में आया तो देखा कि पिता जी अखबार के बजाए घडी की सुईयों को पढ रहे थे। अचानक
ही बोल पडे, स्कूल का काम खत्म हो गया। मैंने कहा, हां..... वो तो स्कूल में ही समय निकालकर कर
लेता हूं। उसके बाद ही सोता हूं। पिता जी की जिज्ञासा कुछ ज्यादा ही थी। कह उठे, तो कापी लाओ,
जरा दिखाओ तो देखें कि हमारे सुपुत्र जी कितना समय का सदुपयोग करते हैं। मैंने कहा, आज स्कूल से काम ही नहीं मिला था। उन्होंने कहा, मैं अभी तुम्हारी मां से यही कह रहा था कि जनाब से कापी
मांगूंगा तो यही जवाब मिलेगा। खैर, अब क्या विचार है? मैंने कहा, विचार तो कुछ खास नहीं। सोच रहा था कि घर के बाहर हो आउं। दिन ढले इसके पहले ही लौट आउंगा। पिता जी की इच्छा थी कि आज सुताई कर दें। मगर मम्मी ने तुरंत कहा, जाओ मगर लौट आना समय से।
फिर सभी ने खिडकी की ओर देखा। फिर मुझे देखा। मैं पानी पीने के बहाने कीचन में चला गया। जब
वापस कमरे में आया तो देखा कि पिता जी अखबार के बजाए घडी की सुईयों को पढ रहे थे। अचानक
ही बोल पडे, स्कूल का काम खत्म हो गया। मैंने कहा, हां..... वो तो स्कूल में ही समय निकालकर कर
लेता हूं। उसके बाद ही सोता हूं। पिता जी की जिज्ञासा कुछ ज्यादा ही थी। कह उठे, तो कापी लाओ,
जरा दिखाओ तो देखें कि हमारे सुपुत्र जी कितना समय का सदुपयोग करते हैं। मैंने कहा, आज स्कूल से काम ही नहीं मिला था। उन्होंने कहा, मैं अभी तुम्हारी मां से यही कह रहा था कि जनाब से कापी
मांगूंगा तो यही जवाब मिलेगा। खैर, अब क्या विचार है? मैंने कहा, विचार तो कुछ खास नहीं। सोच रहा था कि घर के बाहर हो आउं। दिन ढले इसके पहले ही लौट आउंगा। पिता जी की इच्छा थी कि आज सुताई कर दें। मगर मम्मी ने तुरंत कहा, जाओ मगर लौट आना समय से।
यह घटना हर रोज खिडकी पर आहट होते ही घटती थी। हमेशा की तरह उस दिन भी मैं घर से भाग
गया। निकलते ही अपने उस साथी से मिला और कल दूसरा गाना गाकर बुलाने को कह दिया। मगर मन में हमेशा एक सवाल रहता था कि पिता जी भी कभी लडके थे फिर मेरी खेलने की आदत को कभी समझ क्यों नहीं पाते। मम्मी तो गांव की हैं, उन्हें तो बचपन से ही घर में कैद रहना पडा होगा।
ऐसे में उन्हें कैसे पता चल जाता है कि मैं बाहर जाना चाहता हूं, खेलना चाहता हूं। किताबों से बगावत
करना चाहता हूं। सवाल मन में काफी समय से था जो अब पहाड का रूप लेता चला जा रहा था। मगर चंचल में कोई सवाल और उसका जवाब कभी ज्यादा देर तक टिकता नहीं। जाहिर है, इस सवाल को भी जवाब चाहिए था। फिर भी मन में शान्ति बनी रही। मगर कुछ देर के लिए। हर शाम का वही क्रम चलता रहा। इस बीच मैं स्कूल से कालेज और कालेज से जाने कहां-कहां घूमता रहा। दिन बदलते चले गए। मैं शाम के बाद होने वाली रात में खोता रहा। कभी छह बजते ही घर लौट आने वाला वो लडका आज के किशोर के रूप में दस-ग्यारह बजे की रात में भी घर पर नहीं होता था। खैर, वो अपनी मर्यादा जानता था क्योंकि उसके घर में संस्कार की जड काफी मजबूत थी। जिसे वो कभी नहीं छोडना चाहता। एक समय आया मैं अब जीवन में कुछ करने की चाह में घर से दूर जाने की सोचने लगा। धीरे-धीरे घर वालों से दूर भी होने लगा। मगर जिम्मेदारी के करीब रहना मेरा संस्कार था। पिता जी से इजाजत मांगी तो उन्होंने बिना कुछ कहे, इजाजत भी दे दी। कहा, जाओ। आओ या न आओ, तुम्हारी मर्जी। मेरे रोकने से रुकोगे तो पूरे जीवन ताना दोगे कि मेरे पिता ही मेरे दुश्मन हैं। खैर, मुझे इसमें उनकी नाराजगी कम और अपनी आजादी का फरमान ज्यादा सुनाई दिया। मगर आज मां कुछ नहीं बोली।
वो मेरा चेहरा देख रहीं थी कि मैं उन्हें छोडकर बाहर जा रहा हूं। मैंने मां से कहा, परसों शाम को दिल्ली जाउंगा। फलां ट्रेन से जाना तय हुआ है। मम्मी कुछ बेहतरीन बना देना। वो लाल मिर्च का अचार भी रख देना। वहां, बाहर से खरीदकर खाना होगा। मुझे आपके हाथ का ही बनाया हुआ अचार खाना है। मां बोली, रुक जा। क्यों जा रहा है? यहां किस बात कमी है? आज मां के मुंह से ऐसी बात सुनकर बचपन का वो तीखा सवाल जाग उठा। तुरंत पूछ बैठा, मम्मी आप तो कहती थी कि जाओ मगर समय से लौट आना मगर आज आप ही मुझे रोक रही हो। उन्होंने कहा, पता होता कि तू मेरे जाने देने से इतना दूर चला जाएगा तो उस समय भी अपना मार लेती। मैं कुछ समझ नहीं पाया कि मां किस मन की बात कर रही है। फिर पूछ बैठा, कैसा मन, मैं तो अपने घर से बाहर निकलने की बात करता था। मन की बात तो मेरी होती थी। इसमें आपका मन कहां से आया। अब वो रूंधे गले बोल पडीं, मैं तुझमें खुद को देखती थी। लगता था तू अपने दास्तों के साथ घर के बाहर नहीं है। मुझे लगता था कि मैं घर के बाहर खेल रही हूं। जो मैं करना चाहती थी। बचपन में। मगर तेरे मामा और नाना की आंखों का डर मुझे घर के बाहर कभी जाने ही नहीं देता था। हो भी क्यों न हम ब्राह्मण जो ठहरे। संभ्रांत ब्राह्मण। इसलिए मैंने तुझे कभी घर के बाहर जाने से नहीं रोका। मगर अब तू मुझे छोडकर जा रहा है। मैं जान गया कि मां मुझमें खुद को जी रही थी। आंखों के सपने मुझपर हावी थे, इसलिए खुद को रोक नहीं सकता था। मगर आज मां ने मुझे एक लक्ष्य दे दिया कि कभी किसी के मन को मत रोको। उसे वो सब करने दो जिसमें उसकी खुशी हो। तब से यही कर रहा हूं, लोगों को खुश रखने की कोशिश। मगर अब मुझे घर की याद आती है। मैं घर जाना चाहता हूं मगर जिम्मेदारी मुझे घर जाने से रोकती है। मां अब भी बुला रही है। उसे क्या पता कि मैं तो अब भी उनकी जिंदगी ही जी रहा हूं। मगर इस बीच मैं अपनी जिन्दगी कभी जी ही नहीं पाया........ फिर भी इस धरती पर मुझसे ज्यादा सुखी कोई नही है।
गया। निकलते ही अपने उस साथी से मिला और कल दूसरा गाना गाकर बुलाने को कह दिया। मगर मन में हमेशा एक सवाल रहता था कि पिता जी भी कभी लडके थे फिर मेरी खेलने की आदत को कभी समझ क्यों नहीं पाते। मम्मी तो गांव की हैं, उन्हें तो बचपन से ही घर में कैद रहना पडा होगा।
ऐसे में उन्हें कैसे पता चल जाता है कि मैं बाहर जाना चाहता हूं, खेलना चाहता हूं। किताबों से बगावत
करना चाहता हूं। सवाल मन में काफी समय से था जो अब पहाड का रूप लेता चला जा रहा था। मगर चंचल में कोई सवाल और उसका जवाब कभी ज्यादा देर तक टिकता नहीं। जाहिर है, इस सवाल को भी जवाब चाहिए था। फिर भी मन में शान्ति बनी रही। मगर कुछ देर के लिए। हर शाम का वही क्रम चलता रहा। इस बीच मैं स्कूल से कालेज और कालेज से जाने कहां-कहां घूमता रहा। दिन बदलते चले गए। मैं शाम के बाद होने वाली रात में खोता रहा। कभी छह बजते ही घर लौट आने वाला वो लडका आज के किशोर के रूप में दस-ग्यारह बजे की रात में भी घर पर नहीं होता था। खैर, वो अपनी मर्यादा जानता था क्योंकि उसके घर में संस्कार की जड काफी मजबूत थी। जिसे वो कभी नहीं छोडना चाहता। एक समय आया मैं अब जीवन में कुछ करने की चाह में घर से दूर जाने की सोचने लगा। धीरे-धीरे घर वालों से दूर भी होने लगा। मगर जिम्मेदारी के करीब रहना मेरा संस्कार था। पिता जी से इजाजत मांगी तो उन्होंने बिना कुछ कहे, इजाजत भी दे दी। कहा, जाओ। आओ या न आओ, तुम्हारी मर्जी। मेरे रोकने से रुकोगे तो पूरे जीवन ताना दोगे कि मेरे पिता ही मेरे दुश्मन हैं। खैर, मुझे इसमें उनकी नाराजगी कम और अपनी आजादी का फरमान ज्यादा सुनाई दिया। मगर आज मां कुछ नहीं बोली।
वो मेरा चेहरा देख रहीं थी कि मैं उन्हें छोडकर बाहर जा रहा हूं। मैंने मां से कहा, परसों शाम को दिल्ली जाउंगा। फलां ट्रेन से जाना तय हुआ है। मम्मी कुछ बेहतरीन बना देना। वो लाल मिर्च का अचार भी रख देना। वहां, बाहर से खरीदकर खाना होगा। मुझे आपके हाथ का ही बनाया हुआ अचार खाना है। मां बोली, रुक जा। क्यों जा रहा है? यहां किस बात कमी है? आज मां के मुंह से ऐसी बात सुनकर बचपन का वो तीखा सवाल जाग उठा। तुरंत पूछ बैठा, मम्मी आप तो कहती थी कि जाओ मगर समय से लौट आना मगर आज आप ही मुझे रोक रही हो। उन्होंने कहा, पता होता कि तू मेरे जाने देने से इतना दूर चला जाएगा तो उस समय भी अपना मार लेती। मैं कुछ समझ नहीं पाया कि मां किस मन की बात कर रही है। फिर पूछ बैठा, कैसा मन, मैं तो अपने घर से बाहर निकलने की बात करता था। मन की बात तो मेरी होती थी। इसमें आपका मन कहां से आया। अब वो रूंधे गले बोल पडीं, मैं तुझमें खुद को देखती थी। लगता था तू अपने दास्तों के साथ घर के बाहर नहीं है। मुझे लगता था कि मैं घर के बाहर खेल रही हूं। जो मैं करना चाहती थी। बचपन में। मगर तेरे मामा और नाना की आंखों का डर मुझे घर के बाहर कभी जाने ही नहीं देता था। हो भी क्यों न हम ब्राह्मण जो ठहरे। संभ्रांत ब्राह्मण। इसलिए मैंने तुझे कभी घर के बाहर जाने से नहीं रोका। मगर अब तू मुझे छोडकर जा रहा है। मैं जान गया कि मां मुझमें खुद को जी रही थी। आंखों के सपने मुझपर हावी थे, इसलिए खुद को रोक नहीं सकता था। मगर आज मां ने मुझे एक लक्ष्य दे दिया कि कभी किसी के मन को मत रोको। उसे वो सब करने दो जिसमें उसकी खुशी हो। तब से यही कर रहा हूं, लोगों को खुश रखने की कोशिश। मगर अब मुझे घर की याद आती है। मैं घर जाना चाहता हूं मगर जिम्मेदारी मुझे घर जाने से रोकती है। मां अब भी बुला रही है। उसे क्या पता कि मैं तो अब भी उनकी जिंदगी ही जी रहा हूं। मगर इस बीच मैं अपनी जिन्दगी कभी जी ही नहीं पाया........ फिर भी इस धरती पर मुझसे ज्यादा सुखी कोई नही है।
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