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Friday, December 24, 2010

सहर

ख्‍वाबों में तुम, लबों पर रूबाई है

हर नज्‍म लिखने से पहले तुम्‍हें सुनाई है

वक्‍त की मजार पर पूछ रहा हूं खुद से

ऐ खुदा तुझे मुझसे क्‍या रूसवाई है

चलो फिर आम की बागों में गुम हो जाएं

सडकों पर तो लूट और जगहंसाई है

उसने प्‍यार-मोहब्‍बत सब दिया टुकडों में

मैं खुद में शहर हूं, फिर भी तन्‍हाई है।

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3 comments:

nilesh mathur said...

कमाल की अभिव्यक्ति है, बेहतरीन!

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
एक आत्‍मचेतना कलाकार

Kailash Sharma said...
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