पढ लेते तो पत्रकार न होते

सच कह रहा हूं। मन में आजकल ऐसे ही विचार आते हैं कि पढ लेते तो पत्रकार न होते। तब पिता जी की बात क्‍यों नहीं सुनी जब वे किताब थमाने के लिए बेचैन रहते थे। इंटर में आने के बाद वे सरकारी
नौकरी का फार्म भरने को कहते थे। मगर आदत से मजबूर हम फिर कोताही कर बैठे। आज पछता रहे हैं। दीपावली में सभी अपने घर जा रहे हैं और हम खबर बना रहे हैं। सच कहूं पेशा तो यह अच्‍छा है
मगर पैसा नहीं है। ये थी मेरी और मेरे साथी पत्रकारों की दर्द भरी दास्‍तां। अब सुनिए मेरे एक मित्र का हाल, जो पढने में अव्‍वल नहीं थे लेकिन आज उनसे बडा पारिवारिक सफल कोई नहीं। सुकून की जिंदगी जीते हैं। घर की शादी में भी नाचते हैं और पडोसी की शादी में भी धूम मचाते हैं। दरअसल, इसका कारण साफ है कि उन्‍होंने अपने पिता जी की बात सुन ली थी। उन्‍होंने किताबों से दिल लगाते हुए सरकारी नौकरी का फार्म भर दिया था। नतीजा, वही मनचाही जिंदगी जी रहे हैं। जब इच्‍छा होती है छुट्टी ले लेते हैं। घर पर जाने के लिए ज्‍यादा सोचना नहीं पडता। मजे से जिंदगी काट रहे हैं। वहीं, हम उन्‍हें देख के ललचा रहे हैं। काश, हम भी सरकारी दामाद बन जाते। कम से कम दीपावली में घर तो जा पाते। किसी भी शहर में जाना होता तो हरा-हरा नोट दिखाते और ट्रांसफर करा लेते। मगर अब तो जिंदगी बदल सी गई है। सच है साथियों जो जीवन में ज्‍यादा पढाई नहीं करता वो पत्रकार बनने के बाद पूरे जीवन पढाई ही करता रहता है। जिंदगी जीने की जद्दोजहद ही करता रहता है। अपना मन मारता रहता है और दूजों के हक के लिए लडता रहता है। तो अंत में यही कहूंगा, पढ लो मेरे यार मत बनना पत्रकार।

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bilucul sahi kaha dost par abi bi samaya hai..............ha ye jaroor hai ki patrakarita ka kisa kat chuka hai.