गंगाजल के प्रति लोगों की आस्था को मापना मेरे बस की बात नहीं है। उम्मीद करता हूं कि किसी और के बस की भी बात नहीं होगी। कारण, इस पवित्र पावनी जल में डुबकी लगाकर लोग अपने पापों को जल धारा में प्रवाहित हुआ सा मान लेते हैं। हो भी क्यों न राजा भगीरथ ने लोगों को उनके पापों से मुक्ति दिलाने के लिए तो घोर तपस्या करके भगवान शिव की जटा का सहारा लेते हुए मां गंगे को धरती की रगों में बहने के लिए आमंत्रित किया था। मगर आज उसी गंगा की स्थिति को देख दिल फट सा जाता है। इसका दुख मुझे उतना ही होता है जितना एक बालक को उसकी मां से बिछड़ने का।
दरअसल, कुछ रोज पहले मेरे पास एक तस्वीरों का जखीरा आया। उसे मेरे मेल बॉक्स में मेरे बड़े भाई श्री धीरज तिवारी जी ने काफी चिंतित होकर भेजा था। उसमें गंगा के प्रति लोगों की आस्था को दिखाया गया था। शुरुआती तस्वीरों को देखकर मुझे खुशी भी हुई कि मैं हिंदुत्व का हिस्सा हूं। मगर कुछ पलों के बाद जब हकीकत से मेरा सामना हुआ तो दिल भर गया। सोचने लगा मानव ने ये क्या किया? गंगाजल की पवित्रता को हमने अपने कृत्यों से पैरों तले मसल रखा है। हमने मां गंगे को इतना पतित कर रखा है कि अब वे खुद को पवित्र मानने से कतराती होंगी।
आप ही सोचिए कि आखिर हमने जीवनदायिनी गंगा नदी को दिया क्या है? उन्होंने हमें पवित्रता दी तो हमने इसके बदले उसमें पूजा के फूल बहाकर गंदगी का शिलान्यास कर दिया। हमारी जलाशय माता ने हमारी मनचाही इच्छा पूरी की तो हमने उन्हें शवों का ठेला सा बना दिया। मगर मां तो मां है न उसने हमें अब भी अपराधी नहीं समझा। वह फिर भी अप्रभावित होते हुए अनवरत् प्रवाह से स्वयं की शीतलता से हमें शीतल धारा और आशीर्वाद पहुंचाती रहीं। मगर हम तो उद्दण्ड और उच्छृंखल हैं न। हमारा जी नहीं भरा तो हमने उनके आंचल में नगरों और महानगरों में बने घरों और कंपनियों के जहरीले जल का आचमन देना शुरू कर दिया। वाह रे वाह हम तो सच-मुच इंसान ही निकले! हमने पल भर के लिए भी अपनी मां को स्वच्छता देने की कोशिश नहीं की। खैर, आखिर हम हैं तो इंसान ही।
इंसान होने के नाते सोचने लगा कैसे आप सबों से कहूं कि हमें जागरूकता दिखानी होगी। हमें मां गंगे की शीतलता को बरकरार रखना होगा। इसके लिए आपसे विनम्रता से प्रार्थना भी तो नहीं कर सकता था क्योंकि याचनाएं ठुकरा दी जाती हैं। उन पर ध्यान देने के लिए किसी के पास समय नहीं होता। ऐसे में हल मिला कि आपको डराया तो जाया ही सकता है। कारण, जो लोभ नहीं करा पाता वह डर करा जाता है। शायद आपमें से कोई इस समस्या के प्रति गंभीर हो सके।
डरना शुरू करिए.. कभी गंगा के घाटों से परे हटकर डुबकी लगाने का मन बनाइए। आप ज्यों ही नहाने की अवस्था बनाकर डुबकी मारने की मुद्रा अपनाएंगे और ... हर-हर गंगे.. का जाप करते हुए नाक पानी में डुबाएंगे, त्यों ही आपके सर से कोई चीज आ लड़ेगी। आप झट से बाहर निकल गंगा का प्रसाद समझ उसे पाने को उतावले हो जाएंगे। मगर आंखों के सामने कोई प्रसाद नहीं मानव का सड़ा हुआ अंग बहता हुआ नजर आएगा। जिसे आपके और मेरे किसी अंजान बंधु ने जल में प्रवाहित किया होगा। सोचिए, ऐसे ही अपवित्र जल में करोड़ों की संख्या में हमारे परिवार के लोग डुबकियां लगा अपनी आस्था को चरितार्थ करते हैं। उनकी सेहत की खातिर कम से कम एक आदमी तो इस कृत्य के खिलाफ कोई सार्थक कदम उठाए। मेरी बातों पर विश्वास न हो तो कभी गंगोत्री से निकलने वाली गंगा को बंगाल की खाड़ी में समाते हुए देखिए। उसे हरिद्वार के घाट से शीतलता बहाते हुए बहने के बाद कानपुर में रोते-बिलखते हुए देखिए। यकीन मानिए मैं क्षुब्ध हूं। शायद, आप भी हो जाएं।
मैं मानता हूं कि आप अकेले कुछ नहीं कर सकते मगर किसी घाट पर गंदगी को बहाए जाने से रोकने के लिए चंद अक्षरों का झुंड तो अपने मुखारबिंद से निकाल ही सकते हैं। माफ कीजिएगा, भाव कठोर थे मगर मेरी आस्था पवित्र है। मगर गंगा में गंदगी बहाने वालों का क्या, वे तो श्रद्धा में अंधे हो चुके हैं।
[उस मेल की एक तस्वीर को इस ब्लॉग पर प्रसारित कर रहा हूं। हो सके तो इस पर विचार देने का कष्ट करें]
[उस मेल की एक तस्वीर को इस ब्लॉग पर प्रसारित कर रहा हूं। हो सके तो इस पर विचार देने का कष्ट करें]
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Thanks for writing.