'वे दिन बहुत अच्छे थे। काश लौट आते। तब कोई तकलीफ नहीं थी। जिन्दगी में उठा-पटक नहीं थी। वक्त मेहरबानी करे। वे दिन लौटा दे ।' अक्सर, ये शब्द सुनने को मिल ही जाते हैं। कोई पुराना दोस्त जब अचानक फ़ोनकर कहता है, पहचाना?, और आप कह बैठते हैं.'अबे तू। इतने दिनों के बाद। कहाँ है आजकल? ये तुम्हारा ही नंबर है। पहले क्या दिन थे यार दिनभर साथ रहना। कभी तेरे घर में मैंने शाम काटी तो कभी तूने मेरे घर में। वहीं अब जब सब है, तो हम साथ नहीं। काश लौट आते वे दिन।'
दरअसल, कई दिनों के बाद मेरे पास ऐसा ही एक फ़ोन आया। बात तो दस मिनट हुई मगर जो हुई झकझोड़ गई। ऐसा मेरे साथ नहीं, उम्मीद करता हूँ उसके साथ भी हुआ होगा। हम दोनों साथ ही पढ़े, खेले, झगड़े, मनाये गये, ज्यादा खेलने पर घरवालों द्वारा रुलाये गये।' दिन बीतते गये। हम बड़े हो गये। साथ ही भविष्य की चिंता होने लगी। पहले किताबों ने बात दिया। क्योंकि, वह बायो का था और मैं कॉमर्स पढना चाहता था। फिर भी हम मिले, पर पहले से थोड़ा कम। समय बदला और हो गये कामकाजी। घर से दूर। दोस्तों से कोशों दूर। मस्ती करने का तरीका बदला। बचपन में जैसा सोचा था वैसे तरीके अपनाए। हमें तो अब ज्यादा खुश होना चाहिए था। फिर ये कशिश कैसी? हमें पुराने दिन क्यों याद आ रहे हैं।
ये बात समझ से परे नहीं है। दरअसल, इस भागदौड़ भरी जिन्दगी में, गलाकाट प्रतिस्पर्धा के बीच, इन्क्रीमेंट और प्रमोशन की चाह में हम काफी कुछ पाकर भी एक चीज खो चुके हैं, जिसके बिना सब बेमानी है। वह है सुकून। दुनिया गवाह है, लोग कभी संतुष्ट नहीं हुए। हुए होते तो कलियुग न आता। ऐसे में बचपन के ख्वाब पूरे करने के बाद भी हमारा उन आँखों को याद करना लाजिमी है, जिन्होंने हमारे उन सपनों को परिणति तक पहुंचाने के लिए वक़्त-वक़्त पर हमारी हौंसलाफ्जाई की थी। सच बीते दिन कब पलकों के रास्ते दिल में उतर जाते हैं। कोई नहीं जानता। क्योंकि.......
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