हमारे देश में घर-घर में अनेक उदाहरण हैं, जो जीना सिखाते हैं कब्र के सीने पर बैठकर। विश्वास नहीं आता तो जानिये। पाकिस्तान में मौत से आँख-मिचौली सा खेलता सरबजीत का परिवार। राष्ट्रीय खेल के नाम पर हौंकी नामक लाश को काँधे पर ढोते हमारे देश के हौंकी खिलाड़ियों का परिवार। अंत में बेशर्मी को पार चुके माननीय केंद्रीय खाद्य मंत्री शरद पवार। मैं इन साहब के परिवार को नहीं घसिटूंगा। कारण, कौन जाने यही अपने घर की शान बुझाने में विश्वास रखते हों। आप सोच रहे होंगे की इन परिवारों में ऐसा क्या है जो ये देश-विदेश के लिए बेहतरीन उदाहरण बन सकते हैं। हम इनके बारे में क्रमशः बात करेंगे।
पहला सरबजीत का परिवार : हम कई बार अखबार में पढ़ते हैं की फ़लां सेवानिवृत्त बुजुर्ग अपने पेंसन के इंतज़ार में ही चाल बसे। किसी बाबू ने चिलां शर्मा जी को इसलिए पेंसन कार्यालय का चक्कर लगवाया, क्योंकि उन्होंने उसे घुस नहीं दिया। वे थक-हारकर प्रशासन रूपी रावन के आगे अपना शीश कटवा देते हैं। खासकर, जब उनके घर में उनसे जीवन के अंतिम चरण में भी यही उम्मीद की जाती हजी की वे बाजार से सब्जी तो अपने पैसे से ही ला सकते हैं। इससे हटकर यदि हमारी न्यायपालिका की बात की जाए तो न जाने कितने बेगुनाह सिर्फ इसलिए सजा काटने को मजबूर हैं क्योंकि वे गरीब हैं। वहीँ, सरबजीत का परिवार भारत देश के गाँव में बैठकर अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से अपने पिता-पति को छुद्वान के लिए लड़ रहे हैं। वे घर बैठे ही पाकिस्तान को उसकी मनमानी (सरबजीत को फांसी पर लटकाना ) नहीं करने दे रहे हैं। काश, देश-दुनिया का हर परिवार ऐसे ही सीना ताने तानाशाहियों का मुकाबला कर सकता।
दूसरा हमारे हौंकी खिलाड़ी : बचपन में पढ़ा था की भारत का राष्ट्रीय पशु शेर, पक्षी मोर, मिठाई जलेबी और खेल हौंकी। शायद, बहुविकल्पीय में अंतिम वाला प्रश्न यानी खेल पूछा भी गया था। मैंने सही जवाब दिया होगा। मुझे नंबर भी पूरे मिले होंगे। अब भी ऐसा ही होता है। मगर हकीक़त क्या है। अब यह खेल राष्ट्रीय नहीं बल्कि यूँ ही एक नंबर का अंक मार्कशीट में बढवाने के लिए रह गया है। इसका खुलासा तो तभी हो गया था जब हौंकी पर आधारित फिल्म 'चक दे इंडिया' का गाना हौंकी पर कम और क्रिकेट की ख़बरों में ज्यादा बजा। कारण, वही 'भूखे पेट हो न गोपाला, ले लो अपनी कंठ माला'। इसी क्रम में अब महिला हौंकी खिलाडियों ने भी बगावत क बिगुल फूँक दिया है। देखते हैं यह खेल कोर्स से बाहर निकल हकीक़त में कब तक राष्ट्रीय खेल बन पाता है। देखते हैं, कब इसी प्रकार देश के सभी पिछड़े खिलाड़ी अपने हक के लिए खड़े होते हैं।
तीसरे और सबसे अनोखे पवार साहब : न जाने ये मंत्री साहब किस कुंठा के शिकार हैं। इनके पास गरीब जनता को देने के लिया झूटे आश्वासन तक नहीं हैं। गजब है। जब मुंह खोला बुरा ही बोला। कभी कहते मैं ज्योतिषी नहीं हूँ। कभी कहते दूध महंगा हो जाएगा। सब्जी पर कंट्रोल नहीं। सर्कार महंगाई से हार गयी है। वगैरह-वगैरह। मैं इनसे सिर्फ दो सवाल पूछना चाहता हूँ। पहला, भैया अच्छा बोलने में टैक्स लगता है क्या। दूसरा काहे, कांग्रेस की फांस बने हो। ये दुनिया के सबसे बड़े उदाहरण हैं, बिना सोचे बोलने वालों के। क्या दुनिया में लोग इनसे सोचे-समझे बिना न बोलने की कला नहीं सीख सकते। ये सवाल नहीं हिदायत है। पहले सोचो फिर बोलो। काश, मंत्री जी, समझ सकते की इनके इन बयानों से महंगाई को बल मिलता है।
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शरद जी के बारे में अगले पोस्ट में शब्द गर्जना की जाएगी.... नमस्कार।
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