वाह री ठण्ड। आजकल ठिठुरने में ज्यादा समय लग जाता है, बनिस्पत सोने में। ठण्ड का कहर बढ़ता जा रहा है। लोगों को और अपने अखबार के साथियों को बोलते सुना और लिखते देखा की त्राहिमाम-त्राहिमाम। भैया मेरे एक बात बताओ, जाड़े में ठण्ड न होगी तो क्या मई में होगी। खैर, अपनी-अपनी सोच। आपको बताना चाहूँगा की मैं हाल के दिनों में हरिद्वार गया था। सच बताऊँ तो एक उर्जा का एहसास हो रहा है। कई दिनों से ऑफिस से घर और घर से ऑफिस जा-जाकर मन उचट गया था। इस बीच कई चीजें देखीं। मंदिर देखे, साफ़-सुथरी गंगा देखी (पहली बार)। मैं ऋषिकेश भी गया। पर्वत से छनकर आते सूरज की रौशनी को पलकों में बाँध लेने का जी कर रहा था। माफ़ कीजिये मैं यादे सहेज सका दृश्य नहीं। इन नजारों के बीच एक चीज और देखी चाय की दुकान। सच समाज में फैले और बने अमीरी और गरीबी की खाई को समझने और समझाने का सबसे आसान उदाहरण है यह जगह। सोच में पड़ गये क्या? जी, हाँ। चाय की दूकान बैठे हुए मैं एक हिंदी का चुरमुराया हुआ अखबार पढने लगता। यह सिलसिला करीब एक हफ्ते तक चलता रहा। एक रोज मेरी नजर एक बूढ़े आदमी पर पड़ी। इत्तेफाक की बात है कि उसी समय एक मध्यम दर्जे कि कार भी आकर रुकी। चार में से तीन युवक बाहर आये। उन्होंने कहा कि सनसनाती हवा में चौराहे पर चाय पीने का अपना ही मजा है। वे चाय पीने लगे। उधर, वह बुढ़ा गरीब भी चाय मांगने लगा। मैं अखबार से बाहर निकल कर, उन चारों में खो गया। ध्यान दिया तो देखा। उन लड़कों और उस बूढ़े में सिर्फ इतना अंतर था कि वह बुढ़ा खुद को चाय से गरम कर रहा था और वे तीनों मस्ती करने आये थे। सच, प्याली वही, चाय वही। मगर, इतना बड़ा अंतर.......... निशब्द होना बेहतर है। हाँ, वह बुढ़ा कुछ देर पहले आया था, लेकिन उसे चाय तीनों के बाद मिली थी। अब आप भी खिन जाइएगा तो देखियेगा। आपकी मस्ती किसी कि जिन्दगी भी हो सकती है।
अंत में कुछ कमेन्ट मिले, सभी को धन्यवाद। सुझाव और शिकायत मिले तो प्यास बनी रहती है.....
Comments
"ठण्ड में चाय बना चश्मा"
आलेख भी अच्छा लगा।
’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’