ख़ामोशी...

चारों ओर सन्नाटा पसरा है. कोई शोर नहीं. गलियों में चहल-पहल बंद है. घरों के दरवाजे भी उदास हैं. वे किसी मेहमान का स्वागत करने को जैसे तैयार ही नहीं हैं. उसकी झिर्री से भी बच्चे नहीं झांक रहे. यह सुनापन पहली बार दिखा है. यहां तो कभी इतनी शांति नहीं थी. मगर यह शांति डरा रही है. मन में अनेक सवाल पैदा कर रही है. कोरोना के चलते पूरे देश में लॉकडाउन है. लोगों ने इस अदृश्य दुश्मन से बचने के लिए खुद को घरों में कैद कर लिया है. मगर निश्छल अपनी पत्नी माया के साथ एक खाली पालना डगराते हुए गली में शोर पैदा किये चला जा रहा है. 
दोनों के चेहरे बज्र से कठोर हो गए हैं. उन्हें इन गलियों में पसरे सन्नाटे से भी कोई वास्ता नहीं है. दोनों के आंसू बह रहे हैं. वे उन बहती भावना भरी बूंदों को अपनी मैल से काली हो चुकी हथेली से पोंछ भी नहीं रहे हैं. न आपस में बात कर रहे हैं और न ही एक-दूसरे को ढांढस बंधा रहे हैं. वे बस खाली सड़क पर खाली पालना खींचे जा रहे हैं. मन में मलाल का गुबार समेटे वह अपने हर कदम को जबरन आगे की ओर पटक कर दूरी तय कर रहे हैं.
निश्छल के चेहरे पर समय की मार साफ झलक रही है. वह आज कहीं दुबककर रोना चाहता है. जोर-जोर से दहाड़ मारकर रोना चाहता है लेकिन वक़्त ने सन्नाटा पसरा रखा है. वह मजबूरन सुबक रहा है. मन ही मन सुलग रहा है. उसका बस चले तो वह आज भगवान शिव सा तांडव कर सब तहस-नहस कर दे. वह अपने भीतर किसी ज्वालामुखी को दबाए चुपचाप पालना घसीटे आगे बढ़ रहा है. वह मोमबत्ती की तरह जल रहा है. मगर कसौटी ऐसी है कि उसे माया के लिए खुद को मजबूत साबित करना पड़ रहा है. शायद, आज उसे अपने मर्द होने पर अधिक दुख हो रहा है. वह बस अपनी मंजिल पर पहुंचकर किसी एकांत में जाकर बरबस आंसू बहाना चाहता है.
खाली सड़क पर इस समय सिर्फ तीन चीजें नज़र आ रही थीं. सबसे आगे निश्छल. उसके पीछे रस्सी से बंधा पालना और उस खाली पालने पर निगाहें टिकाए बेसुध सी आगे को फूहड़ अंदाज में आगे बढ़ती माया. उसका सांवला चेहरा आज कुछ ज्यादा ही मैला दिख रहा है. उस फूहड़ को जैसे आज कुछ सुहा ही नहीं रह है. वह किसी जिंदा लाश का सजीव उदाहरण बने सड़क पर अपनी बिवाई फ़टी एड़ियां पटके जा रही है. उसकी आँखों से अब आंसू की धारा भी कम होती जा रही है. उसके बिखरे बाल आंसू से गीले हो चुके गाल पर चिपक गए हैं. वह किसी सुसुप्तावस्था में पड़ी ज्वालामुखी सी फट पड़ना चाहती है. मगर वह निश्छल को कमजोर नहीं बनाना चाहती. वह अपने प्यारे पति से एक शब्द भी नहीं बोल रही है. उसे डर है कि कहीं "सुनते हो" कहते ही उसका गला न रूंध जाए. वह अपनी बात पूरी किये बिना ही कहीं दहाड़ मारकर रोने न लगे. इस अंजान गली में तो उसका शोर सुनकर सब कहीं उसे मर्यादाहीन न कह बैठें. मगर उसे सबसे अधिक डर इस बात का है कि यदि वह मंजिल पर पहुंचने से पहले ही रोने लगेगी तो निश्छल कहीं टूट न जाए. इसीलिए वह पालना घिसटे जाने के कानफोड़ू शोर के बीच ही अपनी दहाड़ को दबाकर धीरे से सबक ले रही है. वह पालने पर से एक पल के लिए भी अपनी नजरें नहीं हटने देना चाहती. शायद, इसीलिए वह अपनी बाजू या हथेली से चेहरे पर बिखरे बालों और रह-रहकर कर बह रहे आंसुओं को न हटा रही है और न ही पोंछ रही है. वह निश्छल के लिए निर्बाध चली जा रही है.
दरअसल, वह पालना कुछ घण्टे पहले तक किलकारियों से गूंज रहा था. निश्छल एक मेट्रो नगरी में छोटी सी नौकरी कर अपने परिवार का पेट पाल रहा था. इस तीन प्राणियों के परिवार में खुशी और गरीबी के सिवाय किसी को आने की छूट नहीं थी. मगर बस दो रोज पहले इस दम्पति के सपने यानी कृष्णा के शरीर में बुखार ने अपने हस्ताक्षर कर दिए. मां-बाप ने डॉक्टर की तलाश की. कोरोना महामारी के काल में उन्हें डॉक्टर नहीं मिला. एक दवा की दुकान से उन्होंने एक बुखार कम करने की सिरप खरीदकर कृष्णा को दे दिया. लग रहा था कि अब अलसुबह जब सरकारी अस्पताल में कोई डॉक्टर पहुंचेगा तब तक कृष्णा बचा रहेगा. मगर ऊपरवाले को अपना पालना खाली लग रहा था. वह कृष्णा की अटखेलियां अपने आंगन में देखना चाहते थे. इसीलिए इससे पहले की सूर्यदेव अपनी आंखें खोलते चंद हिचकियों के साथ ही कृष्णा ने अपनी आंखें बंद कर लीं. वह अपने मां-बाप को निर्वात सा कर गया. दोनों तभी से मन में सुनापन लिए एक-दूजे के सामने मजबूत बनने का नाटक करने लगे.
जब आंसू भी कम पड़ने लगे तो उन दोनों ने अपने सूने पालने को लेकर शहर से करीब सत्तर किलोमीटर दूर बसे अपने गांव की ओर जाने का फैसला किया. अब इन सूनी गलियों में तीन निष्प्राण जीव के चलने का शोर है. इनमें से एक पालना है. लोग शोर होने पर खिड़की से झांक ले रहे हैं. चारों ओर सन्नाटा है. दोनों चुप हैं. मगर निश्छल और माया के मन में जो खालीपन है उसके आगे गली का सूनापन कोई मायने नहीं रखता. खासकर, पालने का सूनापन जो इस सुनसान गली-मोहल्ले के सन्नाटे पर भी कहर बरपा रहा है...


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