खुद में ही लम्हा-लम्हा सिमटता गया मैं
बदलते वक़्त में कुछ यूं मिटता गया मैं
फरमाइशें तो बहुत की थीं मेरे सपनों ने
मगर हद में हर पल कुछ घटता रहा मैं
चलो फिर जुगनू की तलाश में गुम हों
पर बचपन के जोश को खोता रहा हूं मैं
न जाने मुक़ाम कब मयस्समर होगी मुझे
हर जंग में थोड़ा-थोड़ा निपटता गया मैं
शिकायतें मेरी कभी सामने भी कह देना
सच सुनने को ता-ज़िंदगी लिखता रहा मैं
कभी फुर्सत मिले तो मुझे भी सुन लेना
तुम्हारे इंतज़ार में बस ज़िंदा रहा हूं मैं
मेरी क़लम ने मुझे कभी सोने न दिया
स्याही की धार में बस चींखता रहा मैं...
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